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________________ 14 निमित्तोपादान अज्ञ को उपदेशादि निमित्तों द्वारा विज्ञ नहीं किया जा सकता और न विज्ञ को अज्ञ ही कर सकते हैं; क्योंकि परपदार्थ तो निमित्तमात्र हैं, जैसे कि स्वयं चलते हुए जीव और पुद्गलों को धर्मास्तिकाय होता है।" । इसी को स्पष्ट करते हुए इसकी संस्कृत टीका में लिखा है - "नन्वेवं बाह्यनिमित्तक्षेपः प्राप्नोतीत्यत्राह। अन्य पुनर्गुरुविपक्षादिः प्रकृतार्थ समुत्पादभ्रंशयोनिमित्तमात्रं स्यात्तत्र योग्यतया एव साक्षात्साधकत्वात्। यहाँ यह शंका हो सकती है कि यों तो बाह्यनिमित्तों का निराकरण ही हो जायेगा। इसका उत्तर यह है कि अन्य जो गुरु आदि तथा शत्रु आदि हैं, वे प्रकृत कार्य के उत्पादन में तथा विध्वंसन में सिर्फ निमित्तमात्र हैं । वस्तुतः किसी कार्य के होने व बिगड़ने में उसकी योग्यता ही साक्षात् साधक होती है।" उक्त कथन से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि कार्य के प्रति साधकतम तो तत्समय की योग्यतारूप क्षणिक उपादान कारण ही है। प्रेरक व उदासीन निमित्तों में मूलभूत अन्तर इसप्रकार हैं - इच्छाशक्ति से रहित एवं निष्क्रिय द्रव्य उदासीन निमित्त होते हैं और इच्छावान एवं क्रियावान द्रव्य प्रेरक निमित्त कहे जाते हैं। धर्मद्रव्य स्वयं चलते हुए जीव और पुद्गलों की गति में निमित्त होता है एवं अंधर्मद्रव्य गमनपूर्वक ठहरते हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति में निमित्त होता है। आकाशद्रव्य सभी द्रव्यों के अवगाहन में निमित्त है और कालद्रव्य सभी द्रव्यों के परिणमन में निमित्त होता है। ___ धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल - ये चारों द्रव्य इच्छाशक्ति से रहित हैं और निष्क्रिय भी हैं; अत: ये उदासीन निमित्त कहे जाते हैं। ___ छात्रों को पढ़ानेवाले अध्यापक इच्छावान होने से प्रेरक निमित्त कहे जाते हैं और ध्वजा के फड़कने में हवा सक्रिय होने से प्रेरक निमित्त कही जाती है। १. पं. आशाधरजी : इष्टोपदेश, श्लोक ३५ की संस्कृत टीका
SR No.009462
Book TitleNimittopadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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