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अयोगकेवली
सम्पूर्ण शील के ऐश्वर्य से सम्पन्न, सर्व आस्रव निरोधक, कर्मबंध रहित जीव की योगरहित वीतराग सर्वज्ञ दशा को अयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं।
गुणस्थान- प्रकरण
आगम में शील के १८ हजार भेदों को अनेक प्रकार से बताया है, किन्तु उनमें से एक प्रकार जो कि श्री कुन्दकुन्द भगवान् ने अपने मूलाचार के शीलगुणाधिकार में बताया है, उसे हम यहाँ दे रहे हैं।
मतलब यह है कि तीन योग, तीन करण, चार संज्ञाएँ, पाँच इन्द्रिय, पृथ्वीकायिक आदि दश जीवभेद और उत्तम क्षमा आदि दश श्रमण धर्म, इनको परस्पर गुणा करने से शील के १८ हजार भेद होते हैं।
योग, संज्ञा, इन्द्रिय और श्रमण धर्म का अर्थ प्रसिद्ध है। अशुभकर्म के ग्रहण में कारणभूत क्रियाओं के निग्रह करने को अर्थात् अशुभयोगरूप प्रवृत्ति के परिहार को करण कहते हैं। निमित्त भेद से इसके भी तीन भेद हैं- मन, वचन और काय | रक्षणीय जीवों के दश भेद हैं: यथा -
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक, साधारण वनस्पति और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ।
गुणस्थानातीत सिद्धावस्था में
अयोगकेवली से गमन
नीचे गमन नहीं
ऊपर से आगमन नहीं
अयोगकेवली में आगमन
१३ अयोगकेवली
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गुणस्थानों का काल
१. मिथ्यात्व - अनादि काल; क्योंकि प्रत्येक जीव पर्यायगत स्वभाव से सहज ही मिथ्यादृष्टि रहता है।
फिर एक बार मिथ्यात्व छूटने से सम्यग्दृष्टि होकर बाद में जीव जघन्यकाल अंन्तमुहूर्त पर्यंत मिथ्यादृष्टि रहेगा ही । उत्कृष्टकाल किंचित्न्यून अर्द्धपुद्गल परार्वतन।
२. सासादन - जघन्यकाल एक समय । उत्कृष्टकाल ६ आवली । ३. मिश्र - जघन्यकाल सर्वलघु अंतर्मुहूर्त।
उत्कृष्टकाल सर्वोत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त ।
४. अविरत सम्यक्त्व - जघन्यकाल अंतर्मुहूर्त । उत्कृष्टकाल साधिक ३३ सागर ।
५. देशविरत - जघन्यकाल अंतर्मुहूर्त ।
मनुष्य की अपेक्षा उत्कृष्टकाल आठ वर्ष एक अंतर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटी ।
तिर्यंच की अपेक्षा तीन अंर्तमुहूर्त कम एक पूर्व कोटि वर्ष । ६. प्रमत्तविरत - मरण की अपेक्षा जघन्य काल एक समय । उत्कृष्टकाल केवलज्ञानगम्य अंतर्मुहूर्त ।
७. अप्रमत्तविरत - मरण की अपेक्षा जघन्य काल एक समय । उत्कृष्ट काल केवलज्ञानगम्य अंतर्मुहूर्त ; तथापि छठवें गुणस्थान के काल से आधा काल
८. अपूर्वकरण नौवें गुणस्थान से नीचे पतन के समय अपूर्वकरण में आकर मरण हो जाय तो जघन्यकाल एक समय ।
८वें गुणस्थान से चढ़ते समय प्रथम भाग में मरण नहीं होता।