________________
गुणस्थान-प्रकरण
सूक्ष्मसाम्पराय धुले हुए कौसुंभी वस्त्र की सूक्ष्म लालिमा के समान सूक्ष्म लोभ का वेदन करनेवाले उपशमक अथवा क्षपक जीवों के यथाख्यात चारित्र से किंचित् न्यून वीतराग परिणामों को सूक्ष्मसापराय गुणस्थान कहते हैं।
कर्मों के फल देने की शक्ति को अनुभाग और उस शक्ति के सबसे छोटे अंश को जिसका कि फिर दूसरा भाग नहीं हो सकता अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं। कृष्टि शब्द का अर्थ कृश करना होता है। यहाँ पर इसका आशय अनुभाग शक्ति को कृश करने से है। जहाँ तक स्थूल खण्ड होते हैं, वहाँ तक बादरकृष्टि और जहाँ सूक्ष्म खण्ड होते हैं वहाँ सूक्ष्मकृष्टि कही जाती है। ये सब कार्य नौवें गुणस्थान में उसके संख्यात बहुभाग बीत जाने पर एक भाग में अनिवृत्तिकरण परिणामों के द्वारा सत्ता में बैठे हुए कर्मों में हुआ करते हैं। किन्तु सूक्ष्मकृष्टिगत लोभ कषाय के इन कर्मस्कन्धों का दशवें गुणस्थान के प्रथम समय में उदय होकर वेदन हुआ करता है।
उपशांतमोह
उपशांतमोह निर्मली फल से सहित स्वच्छ जल के समान अथवा शरदकालीन सरोवरजल के समान सर्व मोहोपशमन के समय व्यक्त होनेवाली पूर्ण वीतरागी दशा को उपशांतमोह गुणस्थान कहते हैं।
इस गुणस्थान का पूरा नाम "उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ" है। छद्म शब्द का अर्थ है ज्ञानावरण दर्शनावरण । जो जीव इनके उदय की अवस्था में पाये जाते हैं, वे सब छद्मस्थ हैं। छद्मस्थ भी दो तरह के हुआ करते हैं - एक सराग, दूसरे वीतराग । ग्यारहवें बारहवें गणस्थानवर्ती जीव वीतराग और इनसे नीचे के सब सराग छद्मस्थ हैं। कर्दम सहित जल में निर्मली डालने से कर्दम नीचे बैठ जाता है और ऊपर स्वच्छ जल रह जाता है। इसीप्रकार इस गुणस्थान में मोहकर्म के उदयरूप कीचड़ का सर्वथा उपशम हो जाता है और ज्ञानावरण का उदय रहता है। इसीलिए इस गुणस्थान का यथार्थ नाम उपाशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ है।
यहाँ पर चारित्र की अपेक्षा केवल औपशमिक भाव और सम्यक्त्व की अपेक्षा औपशमिक और क्षायिक इस तरह से दो भाव पाये जाते हैं।
(१२क्षीण मोह में
११ उपशांत मोह से
११ उपशांतमोह में
ऊपर गमन नहीं
ऊपर से आगमन नहीं
सूक्ष्मसाम्पराय सेगमन
ROO
सूक्ष्मसाम्पराय में आगमन
Roma
उपशांतमोह से गमन
उपशांतमोह में आगमन
KARAN
यदि मरण हो जाये तो
Inst
RE
|
९ अनिवृत्तिकरण से
९ अनिवृत्तिकरण में अविरत सम्यक्त्व में )
4
30
190 उपशमकसूक्ष्मसाम्परायसे | (१० उपशमक सूक्ष्मसाम्पराय में)
HAI अविरत सम्यक्त्व में |