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(४) उसके बाद दर्शनमोहनीय का क्षय करके,
(५) पुनः अप्रमत्तसंयत हुआ ।
(६) फिर प्रमत्त और अप्रमत्त, इन दोनों गुणस्थानों सम्बन्धी सहस्त्रों परिवर्तनों को करके,
(७) क्षपकश्रेणी पर चढ़ता हुआ अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में अधःप्रवृत्तविशुद्धि से शुद्ध होकर, (८) अपूर्वकरण क्षपक, (९) अनिवृत्तिकरण क्षपक, (१०) सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक, (११) क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ, (१२) सयोगिकेवली, (१३) और अयोगिकेवली होता हुआ सिद्ध हो गया । (१४) इस प्रकार इन चौदह अन्तर्मुहूर्तों से कम अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन
प्रमाण सादि और सान्त मिथ्यात्व का काल होता है ।
गुणस्थान- प्रकरण
२४. शंका – मिथ्यात्व नाम, पर्याय का है। वह पर्याय, उत्पाद और विनाश लक्षणवाला है; क्योंकि उसमें स्थिति का अभाव है। और यदि उसकी स्थिति भी मानते हैं तो मिथ्यात्व के द्रव्यपना प्राप्त होता है; क्योंकि 'उत्पाद, स्थिति और भंग, अर्थात् व्यय ही द्रव्य का लक्षण है।' इसप्रकार आर्ष वचन है?
समाधान - यह कोई दोष नहीं; क्योंकि, जो अक्रम से (युगपत् ) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीनों लक्षणोंवाला होता है, वह द्रव्य है।
और जो क्रम से उत्पाद, स्थिति और व्ययवाला होता है वह पर्याय है। इसप्रकार से जिनेन्द्र का उपदेश है ।
२५. शंका - यदि ऐसा है तो पृथिवी, जल, तेज और वायु के पर्यायपना प्रसक्त होता है?
समाधान - भले ही उनके पर्यायपना प्राप्त हो जावे; क्योंकि वह हमें इष्ट है।
२६. शंका - किन्तु उन पृथिवी आदिकों में तो द्रव्य का व्यवहार लोक में दिखाई देता है ?
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षट्खण्डागम सूत्र - ४
समाधान - नहीं, वह व्यवहार शुद्धाशुद्धात्मक संग्रह-व्यवहाररूप नयद्वय - निबंधनक नैगमनय के निमित्त से होता है।
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शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के अवलंबन करने पर छहों ही द्रव्य हैं। और अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के अवलम्बन करने पर पृथिवी, जल आदि अनेक द्रव्य होते हैं; क्योंकि व्यंजनपर्याय के द्रव्यपना माना गया है । किन्तु शुद्ध पर्यायार्थिकनय की विवक्षा करने पर पर्याय के उत्पाद और विनाश, ये दो ही लक्षण होते हैं ।
अशुद्ध पर्यायार्थिकनय के आश्रय करने पर क्रम से तीनों ही पर्याय के लक्षण होते हैं, क्योंकि वज्रशिला, स्तम्भादि में व्यंजनसंज्ञिक उत्पन्न हुई पर्याय का अवस्थान पाया जाता है।
मिथ्यात्व भी व्यंजनपर्याय है, इसलिए इसके उत्पाद, स्थिति और भंग, ये तीनों ही लक्षण क्रम से अविरुद्ध हैं, ऐसा जानना चाहिए।
गाथार्थ - पर्यायनय के नियम से पदार्थ उत्पन्न भी होते हैं और व्यय को भी प्राप्त होते हैं । किन्तु द्रव्यार्थिकनय के नियम से सर्व-वस्तु सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट है, अर्थात् ध्रौव्यात्मक है ।। २९ ।।
यह उक्त गाथा भी विरोध को नहीं प्राप्त होती है; क्योंकि, इसमें किया गया व्याख्यान शुद्ध द्रव्यार्थिकनय और शुद्ध पर्यायार्थिकनय को अवलम्बन करके स्थित है।
२७. शंका- 'जिन जीवों की सिद्धि भविष्यकाल में होनेवाली है, वे जीव भव्यसिद्ध कहलाते हैं' इस वचन के अनुसार सर्व भव्य जीवों का व्युच्छेद होना चाहिए, अन्यथा भव्यसिद्धों के लक्षण में विरोध आता है। तथा, जो राशि व्ययसहित होती है, वह कभी नष्ट नहीं होती है, ऐसा माना नहीं जा सकता है; क्योंकि अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता; अर्थात् सव्यय राशि का अवस्थान देखा नहीं जाता है?
समाधान - यह कोई दोष नहीं; क्योंकि भव्यसिद्ध जीवों का प्रमाण अनन्त है। और अनन्त वही कहलाता है जो संख्यात या