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गुणस्थान- प्रकरण इनमें से द्रव्यपरिवर्तन के दो भेद हैं- नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यपरिवर्तन |
यहाँ नोकर्म-द्रव्यपरिवर्तन का स्वरूप बतलाया गया है। उसी स्वरूप से समझाने के लिए मूल में संदृष्टि दी गई है।
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जिससे अगृहीतसूचक शून्य (०) पुनः मिश्रसूचक हंसपद (+) और गृहीतसूचक एक का अंक (१) दिया गया है।
प्रथम कोष्ठक - इसका अभिप्राय यह है कि अनन्त बार अगृहीत परमाणुपुंज के ग्रहण करने के बाद एक बार मिश्र परमाणुपुंज का ग्रहण होता है । पुनः अनन्त बार उक्त क्रम से मिश्रग्रहण करने के बाद एक बार गृहीत परमाणुपुंज का ग्रहण होता है। इसप्रकार अनन्त बार गृहीतग्रहण हो जाने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन का प्रथम भेद समाप्त होता है । यह संदृष्टि की प्रथम कोष्ठक-पंक्ति का अर्थ है ।
दूसरा कोष्ठक - तत्पश्चात् अनन्त बार मिश्र का ग्रहण होने पर एक बार अगृहीत का ग्रहण होता है। और अनन्त बार अगृहीत का ग्रहण हो जाने पर एक बार गृहीत का ग्रहण होता है। इसप्रकार से अनन्त बार गृहीत का ग्रहण हो जाने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन का दूसरा भेद समाप्त होता है। यही दूसरी कोष्ठक-पंक्ति का अभिप्राय है ।
तीसरा कोष्ठक - पुनः अनन्त बार मिश्र का ग्रहण हो जाने पर एक बार गृहीत का और अनन्त बार गृहीत का ग्रहण हो जाने पर एक बार अगृहीत का ग्रहण होता है। इसप्रकार से अनन्त बार अगृहीतग्रहण होने पर नोकर्मपुद्गल का तीसरा भेद समाप्त होता है । यही तीसरी कोष्ठक पंक्ति का अर्थ है ।
चौथा कोष्ठक - पुनः अनन्त बार गृहीत का ग्रहण होने के पश्चात् एक बार मिश्र का और अनन्त बार मिश्र का ग्रहण होने पर एक बार अगृहीत का ग्रहण होता है। इसप्रकार से अनन्त बार अगृहीत का ग्रहण
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षट्खण्डागम सूत्र - ४
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हो जाने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन का चौथा भेद समाप्त होता है। इस सबके समुदाय को नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन कहते हैं। तथा इसमें जितना समय लगता है उसको नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन का काल कहते हैं। टीका - अब उक्त अगृहीत, मिश्र और गृहीतसंबंधी तीनों प्रकार के कालों का अल्पबहुत्व कहते हैं -
१. सबसे कम अगृहीतग्रहण का काल है ।
२. अगृहीतग्रहण के काल के मिश्रग्रहण का काल अनन्तगुणा है। ३. मिश्रग्रहण के काल के जघन्य गृहीतग्रहण का काल अनन्तगुणा है। ४. जघन्य गृहीतग्रहण के काल से जघन्य पुद्गलपरिवर्तन का काल विशेष अधिक है।
५. जघन्य पुद्गलपरिवर्तन के काल से उत्कृष्ट गृहीतग्रहण का काल अनन्तगुणा है। और
६. उत्कृष्ट गृहीतग्रहणकाल से उत्कृष्ट पुद्गलपरिवर्तन का काल विशेष अधिक है।
१९. शंका –अगृहीतग्रहणकाल के सबसे कम होने का कारण क्या है ?
समाधान - • जो पुद्गल, नोकर्मपर्याय से परिणमित होकर पुनः अकर्मभाव को प्राप्त हो, उस अकर्मभाव से अल्पकाल तक रहते हैं, वे पुद्गल तो बहुत बार आते हैं; क्योंकि, उनकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप चार प्रकार की योग्यता नष्ट नहीं होती है। किन्तु जो पुद्गल विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर नहीं ग्रहण किये गये हैं, वे चिरकाल के बाद आते हैं; क्योंकि, अकर्मभाव को प्राप्त होकर उस अवस्था में चिरकाल तक रहने से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप संस्कार का विनाश हो जाता है। कहा भी है
गाथार्थ - जो कर्मपुद्गल पहले बृद्धावस्था में सूक्ष्म अर्थात् अल्प स्थिति से संयुक्त थे, अतएव निर्जरा द्वारा कर्मरूप अवस्था से मुक्त