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गुणस्थान-प्रकरण भाग, सर्वराशि से अनन्तगुणा और सर्व जीव राशि के उपरिम वर्ग से अनन्तगुणहीन प्रमाणवाला पुद्गलपुंज भोगकर छोड़ा गया है।
इसका कारण यह है कि अभव्यसिद्ध जीवों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग से गुणित अतीतकालप्रमाण सर्व जीव राशि के समान भोग करके छोड़े गये पुद्गलों का परिणाम पाया जाता है।
१७. शंका - यदि जीव ने आज तक भी समस्त पुद्गल भोगकर नहीं छोड़े हैं, तो -
गाथार्थ - इस पुद्गलपरिवर्तनरूप संसार में समस्त पुद्गल इस जीव ने एक-एक करके पुनः पुनः अनन्त बार भोग करके छोड़े हैं।।१८।
इस सूत्रगाथा के साथ विरोध क्यों नहीं होगा?
समाधान - उक्त सूत्रगाथा के साथ विरोध प्राप्त नहीं होता है; क्योंकि, गाथा में स्थित सर्व शब्द की प्रवृत्ति सर्व के एक भाग में की गई है।
तथा सर्व के अर्थ में प्रवर्तित होनेवाले शब्द की एकदेश में प्रवृत्ति होना असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि, ग्राम जल गया, पद (जनपद) जल गया - इत्यादिक वाक्यों में उक्त शब्द ग्राम और पदों के एक देश में प्रवृत्त हुए भी पाये जाते हैं।
अतएव पुद्गलपरिवर्तन के आदि समय में औदारिक आदि तीन शरीरों में से किसी एक शरीर के निष्पादन करने के लिए जीव अभव्यसिद्धों से अनन्तगुणें और सिद्धों के अनन्तवें भागमात्र अगृहीत संज्ञावाले पुद्गलों को ही ग्रहण करता है। उन पुद्गलों को ग्रहण करता हुआ भी अपने आश्रित क्षेत्र में स्थित पुद्गलों को ही ग्रहण करता है; किन्तु पृथक् क्षेत्र में स्थित पुद्गलों को नहीं ग्रहण करता है। कहा भी है -
गाथार्थ - यह जीव एक क्षेत्र में अवगाढ़रूप से स्थित और कर्मरूप परिणमन के योग्य पुद्गल परमाणुओं को यथोक्त (आगमोक्त मिथ्यात्व आदि) हेतुओं से सर्व प्रदेशों के द्वारा बांधता है। वे पुद्गलपरमाणु सादि भी होते हैं, अनादि भी होते हैं और उभयरूप भी होते हैं ।।१९।।
षट्खण्डागम सूत्र -४
द्वितीय समय में भी विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर अगृहीत पुद्गलों को ही ग्रहण करता है। इसप्रकार उत्कृष्ट काल की अपेक्षा अनन्त काल तक अगृहीत पुद्गलों को ही ग्रहण करता है। किन्तु जघन्य काल की अपेक्षा दो समयों में ही अगृहीत पुद्गलों को ग्रहण करता है; क्योंकि, प्रथम समय में ग्रहण किये गये पुद्गलों की द्वितीय समय में निर्जरा करके अकर्मभाव (कर्मरहित अवस्था) को प्राप्त हुए वे ही पुद्गल पुनः तृतीय समय में उसी ही जीव में नोकर्म पर्याय से परिणत हुए पाये जाते हैं।
१८. शंका - प्रथम समय में गृहीत पुद्गलपुंज द्वितीय समय में निर्जीर्ण हो, अकर्मरूप अवस्था को धारण कर, पुनः तृतीय समय में उसी ही जीव में नोकर्मपर्याय से परिणत हो जाता है, यह कैसे जाना?
समाधान - क्योंकि, आबाधाकाल के बिना ही नोकर्म के उदय आदि के निषेकों का उपदेश पाया जाता है। यह पुद्गलपरिवर्तनकाल तीन प्रकार का होता है - १. अगृहीत
ग्रहणकाल २. गृहीतग्रहणकाल और ३. मिश्रग्रहणकाल । १. विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर अगृहीत पुद्गलों के ग्रहण करने
के काल का नाम अगृहीतग्रहणकाल हैं। २. विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर गृहीत पुद्गलों के ही ग्रहण
करने के काल का नाम गृहीतग्रहणकाल हैं। ३. तथा विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर गृहीत और अगृहीत इन
दोनों प्रकार के पुद्गलों के अक्रम से अर्थात् एक साथ ग्रहण करने के काल का नाम मिश्रग्रहणकाल है। इसतरह उक्त तीनों प्रकारों से जीव का पुद्गलपरिवर्तनकाल व्यतीत होता है। विशेषार्थ - जिन पुद्गलपरमाणुओं के समुदायरूप समयप्रबद्ध में
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