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सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान
चौदह गुणस्थान भिन्न समयवर्ती ध्यानियों के परिणाम कभी नहीं मिलते। एक ही समय में चढ़ने वाले जीवों के परिणाम सदृश व विसदृश दोनों प्रकार के होते हैं। इस गुणस्थान में चढ़ने वाला सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में अधःकरण लब्धि द्वारा परिणामों को समय-समय अनन्तगुणा उज्वल करता है। ये परिणाम इस जाति के होते हैं कि भिन्न समयवर्ती जीवों के मिल भी जावें व न भी मिलें। दूसरी लब्धि शुरू करते ही अपूर्वकरण गुणस्थान होता है, तब भिन्न समयवर्ती के परिणाम कभी मिलते नहीं हैं।
यहाँ भी उपशम या क्षपक श्रेणी होती है।
प्रथम शुक्ल-ध्यान से यह साधु आत्मध्यान की ऐसी अग्नि जलाता है, जिससे सिवाय सूक्ष्मलोभ के सर्व मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय कर डालता है। श्री गोम्मटसार में कहा है -
“जहाँ शरीर के आकार आदि के भेद होने पर भी एक समयवर्ती सर्व जीवों के विशुद्ध परिणामों में जहाँ कोई भेद न पाया जावे, वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है।"
अनिवृत्तिकरण गुणस्थान अनिवरतं ससहावं, सुध सहावं च निम्मलं भावं।(३७) क्षिउ उवसम सदर्थं, न्यान सहावेन अनिवर्तयं सुधं ।।६९४ ।।
अन्वयार्थ - (अनिवरतं ससहावं) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में साधु आत्मस्वभाव में रहता है (सुध सहावं च निम्मलं भावं) शुद्ध स्वभाव में मग्न रहता है, निर्मल भावों का धारी होता है (क्षिउ उवसम सदर्थं) या तो क्षपक श्रेणी पर होता है या उपशम श्रेणी पर होता है, सत्य अस्तिरूप आत्म पदार्थ को (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव में ही तिष्ठकर ध्याता है (सुधं अनिवर्तयं) तब यह शुद्ध अनिवृत्तिकरण के परिणामों को पाता है।
भावार्थ - जहाँ शरीर, आयु इत्यादि में भेद होने पर भी एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणामों में समान समय-समय विशुद्धता की उन्नति होती है - एक समयवर्ती जीवों के परिणाम समान रहे, सो अनिवृत्तिकरण लब्धिधारी नौवाँ गुणस्थान है।
सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान सूष्म भेय संजुत्तं, क्षिउ उवसम भाव संजदो सुधो।(३८) निम्मल सुध सहावं, अप्पा परमप्प निम्मलं सुधं ।।६९५ ।।
अन्वयार्थ - (सूष्म भेय संजुत्तं) सूक्ष्म लोभ भाव सहित साधु (क्षिउ उवसम भाव - संजदो सुधो) क्षपक श्रेणी पर या उपशम श्रेणी पर होने वाले भावों का धारी शुद्ध संयमी (निम्मल सुध सहावं) निर्दोष शुद्ध आत्मस्वभाव को ध्याता है (अप्पा परमप्प निम्मलं सुधं) आत्मा को परमात्मा रूप मल रहित व रागादि दोष रहित शुद्ध ध्याता है।
भावार्थ - जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय इतना अल्प हो कि ध्याता को ध्यान में न झलक सके ऐसे ध्यानमयी साधु को दसवाँ सूक्ष्म लोभ नाम का गुणस्थान होता है।
यह प्रथम शुक्लध्यान में मग्न होता हुआ शुद्धात्मा का ही अनुभव करता है, अंतर्मुहूर्त में ही लोभ का उपशम या क्षय कर डालता है।
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