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चौदह गुणस्थान पंचाचार वियानदि, परिनय सुध भाव संमत्तं ।(१८) जिनवयनं सद्दहनं, सद्दहनं सुध ममल संमत्तं ।।६७५ ।।
अन्वयार्थ - (पंचाचार वियानदि) सम्यग्दृष्टि जीव पाँच प्रकार के आचार को समझता है (परिनय सुध भाव संमत्तं) शुद्ध भाव की श्रद्धा में परिणमन करता है (जिन वयनं सद्दहनं) श्री जिनेन्द्र की वाणी का श्रद्धान रखता है (सुध ममल संमत्तं सद्दहनं) आत्मानुभूति रूप निश्चय निर्मल सम्यक्त्व का वह श्रद्धानी होता है।
भावार्थ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग, इन पाँच व्रतों के आचरण से जीव का हित होता है। या दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य, इन पाँच आचारों को पालना चाहिये; ऐसा दृढ़ श्रद्धान सम्यग्दृष्टि को होता है। उसके श्री जिनेन्द्र के आगम का पक्का विश्वास होता है। वह शुद्ध आत्मा के रमण में रुचि रखता हुआ उसी का अनुभव करता रहता है। वह यह भले प्रकार समझता है कि निश्चय सम्यग्दर्शन वहीं पर है, जहाँ निर्मल आत्मा के आनन्द का स्वाद लिया जावे।
रागादिदोस विरयं, असुध परिनाम भाव विरयंतो।(१९) विरइ पमाइ सव्वं, विरयं संसार सरनि मोहंधं ।।६७६ ।।
अन्वयार्थ - (रागादि दोस विरयं) सम्यग्दृष्टि अंतरंग में सर्व औपाधिक रागादि दोषों से विरक्त होता है (असुध परिनाम भाव विरयंतो) शुद्धोपयोग के सिवाय सर्व अशुद्ध परिणामों से उदासीन होता है (सव्वं पमाइ विरई) सर्व प्रमाद भावों से वैरागी होता है। (संसार सरनि मोहंधं विरयं) संसार मार्ग में पटकने वाले अज्ञानमय मोह से शून्य होता है।
भावार्थ - मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय न होने से सम्यग्दृष्टि को अपने शुद्ध आत्मा की व मोक्ष की ऐसी दृढ़ रुचि हो जाती है कि उसको कर्मजनित सर्व रागादि दोष रोग के समान झलकते हैं। शुद्ध आत्मिक स्वभाव की परिणति में रमण करना ही उसका क्रीड़ा वन हो जाता है। वह संसार की किसी भी पर्याय-इंद्र, चक्रवर्ती आदि का मोही नहीं रहता है। वह सर्व प्रमाद भावों से विरक्त रहता है। (ब्र. शीतलप्रसादजी
अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान ने अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में प्रमाद की जो विशेष चर्चा की है; वह सहीरूप से प्रमत्तविरत नाम के छठवें गुणस्थान में लागू होती है; क्योंकि संज्वलन कषाय एवं नौ नोकषाय के तीव्र उदय से होनेवाले कषाय परिणामों को प्रमाद कहा जाता है। __स्थूल रूप से प्रथम गुणस्थान से छठवें गुणस्थानवर्ती सभी जीवों को प्रमादी कहते हैं; यह भी एक विवक्षा है। चौथे गुणस्थानवी जीव जब शुद्धोपयोगी होता है, तब अध्यात्म की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि को अप्रमादी भी कहा गया है। जब अविरत सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धोपयोग में नहीं रहेगा तब उसे प्रमत्त कहते हैं; यह विवक्षा टीकाकार की रही है।
टीकाकार की विवक्षा समझते हुए विषय को जानने का हमें प्रयास करना चाहिए।) गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में छठवें गुणस्थान में ही १५ प्रमादों की विवक्षा ली है। प्रमाद के मूल भेद प्रन्द्रह हैं -
चार विकथा - स्त्री, भोजन, देश, राज्य; (चार-विकथा) पाँच इन्द्रिय (इन्द्रिय के विषय स्पर्श, रस, गंध, वर्ण व शब्द) (क्रोधादि) चार कषाय, निद्रा व स्नेह । इसके उत्तर भेद अस्सी हो जाते हैं। ४ ह्न ५ ह्र ४ ह्र १ह१ = ८०। हर एक प्रमाद भाव में पाँच भावों का संयोग होता है।
एक कोई कथा, एक कोई इन्द्रिय, एक कोई कषाय, निद्रा तथा स्नेह । जैसे किसी ने पुष्प सूंघने का भाव किया - इस प्रमाद भाव में भोजन कथा, घ्राण इन्द्रिय, लोभ कषाय, निद्रा तथा स्नेह गर्भित हैं। इन्द्रियों के विषय व कषाय के विकारों से पूर्ण अरुचि को रखने वाला सम्यक्त्वी जीव होता है।
मिच्छात समय मिच्छा, समय प्रकृति मिच्छ सभावं।(२०)
कषायं अनंतानं, तिक्तंति प्रकृति सप्त सभावं ।।६७७ ।।
अन्वयार्थ - (मिच्छात समय मिच्छा समय प्रकृति मिच्छ सभावं) मिथ्यात्वकर्म, सम्यक्त्व-मिथ्यात्वकर्म व सम्यक्त्वप्रकृतिकर्म-इनके उदय को (कषायं अनंतानं) व चार अनन्तानुबन्धी कषायों के उदय को (सप्त प्रकृति सभावं तिक्तंति) इसतरह सात प्रकृतियों के उदय को सम्यक्त्वी त्याग देता है।
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