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आत्मा ही परमात्मा है
चलाये – यह हमें अच्छा भी नहीं लगता, क्योंकि हमारा मन ही कुछ इसप्रकार का बन गया है ।
'कौन करोड़पति है और कौन नहीं है ?' - यह जानने के लिए आजतक कोई किसी की तिजोरी के नोट गिनने तो गया नहीं, यदि जायेगा भी तो बतायेगा कौन ? बस बाहरी ताम-झाम देखकर ही हम किसी को भी करोड़पति मान लेते हैं । दस-पाँच नौकर-चाकर, मुनीम-गुमास्ते और बंगला, मोटरकार, कल-कारखाने देखकर ही हम किसी को भी करोड़पति मान लेते हैं, पर यह कोई नहीं जातना कि जिसे हम करोड़पति समझ रहे हैं, हो सकता है कि वह करोड़ों का कर्जदार हो । बैंक से करोड़ों रुपये उधार लेकर कल-कारखाने चल निकलते हैं और बाहरी ठाठ-बाट देखकर अन्य लोग भी सेठजी के पास पैसे जमा कराने लगते हैं । इसप्रकार गरीबों, विधवाओं, ब्रह्मचारियों के करोड़ों के ठाठ-बाट से हम उसे करोड़पति मान लेते हैं ।
इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जिसे हम करोड़पति साहूकार मान रहे हैं, वह लोगों के करोड़ों रुपये पचाकर दिवाला निकालने की योजना बना रहा हो ।
ठीक यही बात सभी आत्माओं को परमात्मा मानने के सन्दर्भ में भी है। हमारा मन इन चलते-फिरते, खाते-पीते, रोते-गाते चेतन आत्माओं को परमात्मा मानने को तैयार नहीं होता, भगवान मानने को तैयार नहीं होता। हमारा मन कहता है कि यदि हम भगवान होते तो फिर दर-दर की ठोकर क्यों खाते फिरते ? अज्ञानांधकार में डूबा हमारा अन्तर बोलता है कि हम भगवान नहीं है, हम तो दीन-हीन प्राणी हैं, क्योंकि भगवान दीन-हीन नहीं होते और दीन-हीन भगवान नहीं होते । __अबतक हमने भगवान के नाम पर मन्दिरों में विराजमान उन प्रतिमाओं के ही भगवान के रूप में दर्शन किये हैं, जिनके सामने हजारों लोग मस्तक टेकते हैं, भक्ति करते हैं, पूजा करते हैं। यही कारण है कि हमारा मन