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________________ आत्मा ही है शरण काम के दिनों (वीकडेज) में कैसे आ सकते हैं ? न मालूम कितने बहाने खड़े कर देते हैं । 44 आखिर शरीर के इलाज की इतनी अपेक्षा और आत्मा के इलाज की इतनी उपेक्षा क्यों ? इसका एकमात्र कारण शरीर में अपनापन और भगवान आत्मा में परायापन ही तो है । जबतक शरीर से अपनापन टूटेगा नहीं और भगवान आत्मा में अपनापन आएगा नहीं, तबतक शरीर की उपेक्षा और भगवान आत्मा के प्रति सर्वस्व समर्पण संभव नहीं है । सर्वस्व समर्पण के बिना आत्मदर्शन- सम्यग्दर्शन संभव नहीं है । यदि हमें आत्मदर्शन करना है, सम्यग्दर्शन प्राप्त करना है तो देह के प्रति एकत्व तोड़ना ही होगा, आत्मा में एकत्व स्थापित करना ही होगा । देह से भिन्नता एवं आत्मा में अपनापन स्थापित करने के लिए देह की मलिनता और आत्मा की महानता के गीत गाने से काम नहीं चलेगा, देह के परायेपन और आत्मा के अपनेपन पर गहराई से मंथन करना होगा । "पल रुधिर राध मल थैली, कीकस बसादि तैं मैली । नव द्वार बहें घिनकारी, अस देह करे किम यारी ॥ कफ और चर्बी आदि से मैली यह देह मांस, खून, पीप आदि मलों की थैली है । इसमें नाक, कान, आँख आदि नौ दरवाजे हैं, जिनसे निरन्तर घृणास्पद पदार्थ बहते रहते हैं । हे आत्मन् ! तू इसप्रकार की घिनावनी देह से यारी क्यों करता है ?" "इस देह के संयोग में जो वस्तु पलभर आयगी । वह भी मलिन मल-मूत्रमय दुर्गन्धमय हो जायगी ॥ किन्तु रह इस देह में निर्मल रहा जो आतमा । वह ज्ञेय है श्रद्धेय है, बस ध्येय भी वह आतमा ॥ २" १. दौलतराम : छहढाला, पंचमी ढाल, अशुचिभावना २. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल : बारह भावना, अशुचिभावना
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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