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जैनभक्ति और ध्यान
जैनधर्म की यह मान्यता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का भला-बुरा नहीं करता है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ करता ही नहीं है तो फिर भले-बुरे का सवाल ही कहाँ उठता है । जब यह बात सत्य है तो फिर दूसरे द्रव्य की क्रिया से किसी आत्मा का धर्म कैसे हो सकता है ? अतः यह सुनिश्चित है कि आत्मा का धर्म आत्मा में ही होता है, देहादि में नहीं, देहादि की क्रिया में भी नहीं । जैनदर्शन के अनुसार पर में कुछ करना कठिन नहीं, अशक्य है । अतः धर्म भी पर में कुछ करने रूप नहीं हो सकता । आत्मा का स्वभाव ज्ञान है, जानना है; अतः जानना आत्मा का
सहज धर्म है, आत्मा को जानते रहना भी आत्मा का सहज धर्म है । __ अतः आत्मज्ञान और आत्मध्यान आत्मा के सहजधर्म हैं। इसलिए इनमें कोई कठिनाई का सवाल ही नहीं उठता ।
तस्वीरे खुदा हृदय के आइने में है,
जब चाही गर्दन झुकाई देख ली । इसमें कहा गया है कि खुदा की तस्वीर तेरे हृदय-दर्पण में है, अतः जब तू चाहे गर्दन झुकाकर उसे देखा जा सकता है । पर भाई, यह बात तो इस्लाम की है, हमारी नहीं । अरे भाई, क्या गर्दन झुकाना कोई आसान काम है ? विशेषकर उस स्वाभिमानी देश में जहाँ कहा जाता है कि - गर्दन कटा सकते हैं पर गर्दन झुका सकते नहीं ।
स्वाभिमानियों के लिए तो गर्दन झुकाना भी मौत से कम नहीं है ।
जब कभी हमारी गर्दन में दर्द हो जाता है तो गर्दन का हिलाना भी असंभव हो जाता है, झुकाना तो बहुत दूर की बात है । इतनी तकलीफ उठाकर भी, स्वाभिमान खोकर भी यदि गर्दन झुका भी ली तो भी क्या मिलने वाला है ? दर्शन भी खुदा के नहीं, खुदा की तस्वीर के होंगे ।
हमें किसी की तस्वीर के दर्शन नहीं करना है, हमें किसी अन्य खुदा के __ भी दर्शन नहीं करने हैं । हम तो स्वयं खुदा है न ?