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जैनभक्ति और ध्यान
हाँ, भाई ! बात तो ऐसी ही है । उपयोग के आत्मा पर केन्द्रित होने के अतिरिक्त और ऐसा क्या है, जिसे ध्यान कहा जाय ? जब आपसे यह कहा जाता कि आप ध्यान करो तो आप उपयोग को केन्द्रित करने के अतिरिक्त और करते भी क्या हैं ? जब आप किसी से यह कहते हैं कि मुझसे तो ध्यान होता ही नहीं है तो उसका यही अर्थ होता है न कि आपका उपयोग आत्मकेन्द्रित नहीं होता है । पद्मासन तो आप लगा ही लेते हैं, हाथ पर हाथ रखकर भी बैठ ही जाते हैं, दृष्टि को भी नाशान कर ही लेते हैं, रीढ़ की हड्डी को भी एकदम सीधी रखते ही हैं; पर ऐसा क्या बाकी रह गया कि आप कहते हैं कि ध्यान लगता ही नहीं । यही न कि आत्मा के ध्यान में मन नहीं लगता, और तो सब क्रिया-प्रक्रिया पूरी कर ही लेते हैं, पर मन नहीं लगता ।
यह मन का नहीं लगना क्या है ?
उपयोग का आत्मा पर केन्द्रित नहीं होना ही मन का नहीं लगना है। बाह्य क्रिया-प्रक्रिया का अभ्यास करने से कुछ भी होने वाला नहीं है, जब तक भगवान आत्मा का स्वरूप हमारी समझ में नहीं आयेगा, तबतक मन आत्मा में लगने वाला नहीं है । जब वह आत्मा को जानता ही नहीं है, पहिचानता ही नहीं है; तो आखिर वह लगे भी कहाँ ? ___ मन आत्मा में लगे इसके लिए आत्मा के सच्चे स्वरूप को पहले जिनवाणी के माध्यम से, आत्मा के स्वरूप को जानने वाले सत्पुरुषों के माध्यम से, अध्ययन-मनन-चिन्तन के माध्यम से, तर्क-वितर्क के माध्यम से गहराई से जानना होगा; तब वह भगवान आत्मा हमारे अतीन्द्रिय ज्ञान का ज्ञेय बनेगा, ध्यान का ध्येय बनेगा और श्रद्धान का श्रद्धेय बनेगा, तभी उसमें अपनापन स्थापित होगा, तभी पर से अपनापन टूटेगा, पर्याय से अपनापन टूटेगा; एकमात्र त्रिकाली ध्रुव ज्ञानानन्दस्वभावी निजभगवान आत्मा में अपनापन स्थापित होगा।
अरे भाई, आत्मकल्याण करना है तो, भगवान बनना है तो एकमात्र निज भगवान आत्मा को जानने-पहिचानने में शक्ति लगावो, सक्रिय हो जावो - कल्याण के मार्ग पर चलने का एकमात्र यही उपाय है ।