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आत्मा ही है शरण
"लीन भयौ विवहार में उकति न उपजै कोइ ।
दीनभयौ प्रभु पद जपै मुकति कहाँ सौं होइ ॥१" । इसीकारण आचार्य कुंदकुंद भी उक्त गाथाओं में अन्य सब विकल्पों को तोड़कर निज भगवान आत्मा की शरण में जाने की बात करते हैं । __ वे कहते हैं कि जब पंचपरमेष्ठी पद और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आतमा की ही अवस्थायें हैं तो फिर हम आत्मा की ही शरण में क्यों न जायें, यहाँ-वहाँ क्यों भटकें ?
अरे भाई, पर भगवान या पर्यायरूप भगवान की शरण में जाने-वाले भगवानदास बनते हैं, भगवान नहीं । यदि स्वयं ही पर्याय में भगवान बनना हो तो निज भगवान आत्मा की ही शरण में जाना होगा, उसे ही जानना-पहिचानना होगा, उसमें ही अपनापन स्थापित करना होगा, उसका ही ध्यान धरना होगा, उसमें ही समा जाना होगा - इस बात को कभी भूलना नहीं चाहिए ।
इसप्रकार इन गाथाओं में भगवान बनने की विधि भी बता दी गई है।
सभी आत्मार्थी भाई-बहिन निज भगवान आत्मा की शरण में जाकर, निज आत्मा में ही जमकर-रमकर अनन्तसुखी हों -इस मंगल भावना से विराम लेता हूँ ।
भेद-विज्ञान यद्यपि खोज की प्रक्रिया व खोज को भी व्यवहार से भेद-विज्ञान कहा जाता | है, तथापि जिसे खोजना है उसी में खो जाना ही वास्तविक भेद-विज्ञान है अर्थात् निज-अभेद में खो जाना, समा जाना ही भेद-विज्ञान है ।
भेद-विज्ञानी जीव की दृष्टि अविकृत होती है । वह आत्मा को रागी-द्वेषी अनुभव नहीं करता और न ही वह आत्मा को सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि आदि भेदों में अनुभव करता है । अनुभव में अशुद्धता और भेद नजर नहीं आता ।।
- तीर्थकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ - १२९)
१. नाटक समयसार निर्जराद्वार, छन्द २२