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आत्मा ही है शरण
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जिसने राग-द्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया । सब जीवों को मोक्षमार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया ॥ बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो । भक्तिभाव से प्रेरित होकर चित्त उसी में लीन रहो ॥
जो सर्वज्ञ है, वीतरागी है और हितोपदेशी है; हम तो उसके ही चरणों में सिर नवाते हैं, वह चाहे महावीर हो, चाहे बुद्ध हो, चाहे जिन हो, चाहे हरि हो, चाहे हर हो, चाहे ब्रह्मा हो । चाहे कोई भी हो, पर यदि वह सर्वज्ञ वीतरागी है तो हमारे लिए वन्दनीय है, प्रातः स्मरणीय है ।
व्यक्तिविशेष की आराधना करने वाला धर्म सार्वकालिक नहीं हो सकता, सार्वभौमिक नहीं हो सकता और सार्वजनिक भी नहीं हो सकता । व्यक्तिविशेष अनादि - अनन्त नहीं होने से सार्वकालिक नहीं होते, क्षेत्रविशेष से सम्बन्धित होने से सार्वभौमिक नहीं होते और जातिविशेष से सम्बन्धित होने से सार्वजनिक नहीं हो सकते; पर पंचपरमेष्ठी अनादि से होते आये हैं और अनन्तकाल तक होते रहेंगे, अतः सार्वकालिक हैं; ढाई द्वीप में सर्वत्र ही होते हैं, अतः सार्वभौमिक हैं और जातिविशेष से सम्बन्धित न होने से सार्वजनिक भी हैं ।
पंचपरमेष्ठी का आराधक होने के कारण ही जैनदर्शन सार्वकालिक, सार्वभौमिक एवं सार्वजनिक है ।
जैनदर्शन के अनुसार निज भगवान आत्मा की साधना करने वाले ही साधु कहलाते हैं और साधुओं में ही जो वरिष्ठ होते हैं, उन्हें आचार्य और उपाध्याय पद प्राप्त होते हैं । आत्मा की साधना से पूर्णता को प्राप्त पुरुष ही अरिहंत और सिद्ध बनते हैं । इसप्रकार आत्मसाधक और अरिहंत व सिद्ध ही पंचपरमेष्ठी हैं, जिन्हें इस णमोकार महामंत्र में नमस्कार किया गया है ।