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आत्मा ही है शरण
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है; उसीप्रकार आत्मार्थी के लिए भी देखने-जानने योग्य तो सभी पदार्थ हैं, पर जमने-रमने योग्य निज भगवान आत्मा ही है, अपनापन स्थापित करने योग्य अपना आत्मा ही है, रति करने योग्य तो सुगति के कारणरूप स्वद्रव्य ही है, दुर्गति के कारणरूप परद्रव्य नहीं; इसीलिए उक्त गाथाओं में कहा गया है -
"परद्रव्य से हो दुर्गति निज द्रव्य से होती सुगति । यह जानकर रति करो निज में अर करो पर से विरति ॥"
अपनी माँ को खोजने की जिसप्रकार की धुन - लगन उस वालक को थी, आत्मा की खोज की उसीप्रकार की धुन - लगन आत्मार्थी को होना चाहिए । आत्मार्थी की दृष्टि में स्वद्रव्य अर्थात् निज भगवान आत्मा ही सदा ऊर्ध्वरूप से वर्तना चाहिए । गहरी और सच्ची लगन के विना जगत में कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता, तब फिर आत्मोपलब्धि भी गहरी और सच्ची लगन के विना कैसे संभव है ?
सभी आत्मार्थी भाई परद्रव्य से विरक्त हो स्वद्रव्य की आराधना कर आत्मोपलब्धि करें और अनन्त सुखी हों - इसी मंगल भावना से विराम लेता हूँ ।
टोरंटो में जैना (जैन एसोसियेशन इन नार्थ अमेरिका) का चतुर्थ द्विवार्षिक सम्मेलन था, जिसमें देश-विदेश के १२५० भाई-बहिन उपस्थित थे। यहाँ आचार्य श्री सुशील मुनि, चित्रभानुजी, बन्धुत्रिपुटी, भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिजी, भट्टारक चारुकीर्तिजी, भट्टारक लक्ष्मीसेनजी एवं डॉ. कुलभूषणजी लोखण्डे भी उपस्थित थे। सभी के व्याख्यान हुए । जो विषय चल रहा था, हम भी उसी विषय पर, जैन समाज की एकता पर बोले, जो सभी को बहुत पसंद आया ।
तदुपरान्त हम डलास पहुंचे, जहाँ एक दिन अतुल खारा एवं दो दिन वीरेन्द्र जैन के घर पर ठहरे ।