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आत्मा ही है शरण
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दे दे; किसी भी प्रयोजनभूत-अप्रयोजनभूत परपदार्थ को जानकर उसे ही जानते रहना आत्मार्थी का लक्षण नहीं है ।।
अपनी माँ की खोज करने वाला बालक किसी अन्य महिला की सुन्दरता पर रीझता नहीं है; उसे तो अपनी माँ चाहिए, दूसरी महिलाओं से उसे क्या उपलब्ध होनेवाला है ? अपनी माँ की खोज में व्यस्त बालक के पास दूसरी महिलाओं का सौन्दर्य निरखने का समय ही कहाँ है, उन पर रीझने योग्य मानस ही उसके पास कहाँ है ? वह तो अपनी माँ की खोज में ही आकुल-व्याकुल है । ___ इसीप्रकार परपदार्थों के अवलोकन से, उनपर रीझने से इस भगवान आत्मा को क्या मिलने वाला है ? आत्मार्थी के पास इतना समय भी कहाँ है कि वह दूसरों की सुन्दरता निरखता रहे; किसी आत्मार्थी के पास परपदार्थों पर रीझने योग्य मानस भी कहाँ होता है ? वह तो अपनी आत्मा की खोज के लिए सम्पूर्णतः समर्पित होता है ।।
दूसरे की माताओं को जाना तो क्या, नहीं जाना तो क्या ? अपनी . माँ मिलनी चाहिए । उसीप्रकार दूसरे पदार्थों को जाना तो क्या, नहीं जाना तो क्या; अपनी आत्मा जानने में आना चाहिए, पहिचानने में आना चाहिए: क्योकि हमें अनन्त आनन्द की प्राप्ति तो निज भगवान आत्मा के जानने से ही होने वाली है । यही कारण है कि यहाँ स्वद्रव्य के आश्रय से सुगति
और परद्रव्य के आश्रय से दुर्गति होना बताया गया है । __ जिसप्रकार वह बालक अन्य महिलाओं को जानता तो है, पर उनकी ओर लपकता नहीं है; उनसे लिपटता नहीं है; पर जब उसे अपनी माँ दिख जावेगी तो मात्र उसे जानेगा ही नहीं; उसकी तरफ लपकेगा भी; उससे लिपट भी जावेगा; उसमें तन्मय हो जावेगा, एकमेक हो जावेगा, आनन्दित
हो जावेगा । उसीप्रकार आत्मार्थी आत्मा भी परद्रव्यों को जानते तो हैं, . पर उनमें जमते, रमते नहीं हैं, पर जब यह निज भगवान आत्मा उसके