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आत्मा ही है शरण
आयुकर्म दे नहीं सकते हो तो फिर तुम उसकी रक्षा भी किसप्रकार कर सकते हो ? इसीप्रकार जब कोई अन्य व्यक्ति तुम्हें आयुकर्म नहीं दे सकता है तो फिर वह तुम्हारी रक्षा भी किसप्रकार कर सकता है ?
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इसीप्रकार सुख-दुःख के सन्दर्भ में भी घटित कर लेना चाहिए । प्रत्येक जीव अपने शुभकर्म के उदयानुसार लौकिक सुख प्राप्त करता है, अनुकूल संयोग प्राप्त करता है और अपने अशुभकर्म के अनुसार दुःख प्राप्त करता है, प्रतिकूल संयोग प्राप्त करता है । यह परमसत्य जिनेन्द्र भगवान की वाणी में आया है ।
जव तुम किसी को भी शुभाशुभकर्म नहीं दे सकते हो तो उसे सुखी - दुःखी भी कैसे कर सकते हो ? इसीप्रकार जब कोई तुम्हें शुभाशुभकर्म नहीं दे सकता है तो वह तुम्हें भी सुखी - दुःखी कैसे कर सकता है ?
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्राणी अपने सुख-दुःख एवं जीवन-मरण का कर्त्ता-धर्ता हर्त्ता स्वयं ही है, अपने भले-बुरे का उत्तरदायी भी पूर्णतः स्वयं ही है ।
इस परमसत्य से अपरिचित होने के कारण ही अज्ञानीजन अपने सुख-दुःख एवं जीवन-मरण का कर्त्ता-धर्ता हर्त्ता अन्य जीवों को मानकर अकारण ही उनसे राग-द्वेष किया करते हैं । अज्ञानी के यह राग-द्वेष - मोह परिणाम ही उसके अनन्त दुःखों के मूल कारण हैं ।
पर में ममत्व एवं कर्तृत्व वृद्धि से उत्पन्न इन मोह - राग-द्वेष परिणामों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने वाले इस महासिद्धांत को जगत के सामने रखकर आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने हमसब का महान उपकार किया है; क्योंकि जगतजनों के जीवन का सर्वाधिक समय इसी चिंता और आकुलता - व्याकुलता में जाता है कि कोई हमें मार न डाले, दुःखी न कर दे; मैं पूर्ण सुरक्षित रहूँ, जीवित रहूँ, सुखी रहूँ । अपनी सुरक्षा के उपायों में ही हमारी सर्वाधिक शक्ति लग रही है, बुद्धि लग रही है, श्रम लग रहा है । अधिक क्या कहें