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________________ आत्मा ही है शरण 104 जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी गाणी एतो दु विवरीदो ॥४९॥ आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणति सव्वण्हू । आउ च ण देसि तुम कहं तए जीविद कद तेसि ॥५०॥ आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणति सव्वण्हू । आउ च ण दिति तुहं कहं णु ते जीविद कद तेहिं ॥५१॥ जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसहिदे करेमि सत्तेति । सो मूढो अण्णाणी गाणी एतो दु विवरीदो ॥५२ ।। इन गाथाओं का हिन्दी पद्यानुवाद इसप्रकार है : मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारे अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन ॥४६॥ निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही । तुम मार कैसे सकोगे जब आयु हर सकते नहीं ॥४७॥ निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं ॥४८॥ मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन ॥४९॥ सब आयु से जीवित रहें यह बात जिनवर ने कही । जीवित रखोगे किसतरह जब आयु दे सकते नहीं ॥५०॥ सब आयु से जीवित रहें यह बात जिनवर ने कही । कैसे बचावें वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं ॥५१॥ मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ जगत में अन्य को । यह मान्यता अज्ञान है, क्यों ज्ञानियों को मान्य हो ॥५२॥
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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