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समझकर स्वाध्याय बन्द कर दिया। पुनः प्रातः गुरु के पास प्रायश्चित्त लेकर, शुद्धि करके, काल में अध्ययन के प्रभाव से उत्तम देव-पद को प्राप्त किया। इसके विपरीत एक उदाहरण है कि - एक शिवनन्दी नाम के मुनिराज थे। वे अपने तीव्र कर्म के उदय से गुरु-आज्ञा की अवहेलना करके अकाल में स्वाध्याय किया करत थ | फलस्वरूप अंत में असमाधि से मरण करके पापकर्म के निमित्त से गंगा नदी में महामत्स्य हा गये | आचार्यों ने ठीक ही कहा है
जिनाज्ञालोपने नैव प्राणी दुर्गतिभाग्भवेत् । जिनेंद्र देव की आज्ञा का लोप करने पर यह प्राणी दुर्गति में चला जाता है | पुनः उस नदी के तट पर स्थित एक महामुनि उच्चस्वर से स्वाध्याय कर रहे थे। इस मत्स्य ने पाठ को सुना, ता इसे जाति स्मरण हो गया-ओहो! मैं भी इन्हीं के सदृश मुनिवेष में ऐस ही स्वाध्याय करता रहता था, पर मैं इस तिर्यच योनि में कैसे आ गया? हाय! हाय! मैं जिनागम की और गुरु की आज्ञा को कुछ न गिनकर अकाल में भी स्वाध्याय करता रहा, जिसके फलस्वरूप मुझे यह निकृष्ट योनि मिली है | सच में आगम के पढ़ने का फल तो यही है कि उसक अनुरूप प्रवृत्ति करना । अब मैं क्या करूँ? कुछ क्षण सोचकर वह मत्स्य किनार पर आकर गुरु के सन्मुख पड़ गया। गुरु ने उस भव्यजीव समझकर सम्यक्त्व ग्रहण कराया तथा पंच अणुव्रत दिये | उस मत्स्य ने भी सम्यक्त्व के साथ-साथ अणुव्रत को पालते हुए जिनेन्द्र भगवान क चरण कमलों का अपने हृदय में धारण किया और आयु पूर्ण करक मरकर स्वर्ग में देव हो गया ।
"स्वाध्याय के लिये अकाल कब-कब होते हैं?"
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