________________
यदि अपने आपको शुद्ध चैतन्य मात्र देखोगे, तो हमारी यह दृष्टि वह चिनगारी है जो कि विपदाओं के, कर्मा के पहाड़ों को जला सकती है । है एक छोटी दृष्टि, सूक्ष्म दृष्टि, मगर वह इतनी चमत्कारिणी है कि सारे कर्मों के पहाड़ों को भस्म कर सकती है । और यदि एक आत्मा को नहीं पहचाना तो संसार में ही रुलना पड़ेगा ।
संसार तो स्वार्थ का होता है । वास्तव में जीव का यहाँ कोई भी अपना नहीं है । संसार में जीव के जीते हुये बनावटी प्रेमलीला चलती है। मरने के बाद कोई भी अपना नहीं है। मरने के बाद कोई भी उस प्रेम को नहीं रखता । पर को अपना मानकर उसमें राग-द्वेष करना ही संसार - भ्रमण का कारण है । अतः पर से भिन्न अपनी चैतन्यस्वरूपी आत्मा को पहचान कर उसी में रत रहो ।
जैसे तोता-मैना अपनी पक्षी की बोली छोड़कर मनुष्यों की बोली बोलने की क्रिया आरम्भ कर देते हैं, तो मनुष्यों के द्वारा स्व- मनोरंजन के लिये पिंजड़े में डाल दिये जाते हैं । और यदि वे मनुष्यों की बोली बोलना बन्द कर दें, तो मनुष्यों के द्वारा पिंजड़े से बाहर निकाल दिये जाते हैं । इसी तरह संसारी जीव जब तक मन, वचन, काय आदि पर-पदार्थों को अपना मानकर उनसे ममत्व करता है, तब तक कर्मों के द्वारा बँधा संसार रूपी जेल में पड़ा परतंत्रता के दुःख उठाता है । किन्तु मन अलग है, मैं जीवात्मा अलग हूँ, वचन अलग हैं, मैं चैतन्य आत्मा अलग हूँ, ऐसा भेद विज्ञान ही मुझे संसार - परिभ्रमण से छुड़ाकर मुक्ति की ओर ले जाने वाला है ।
अपनी आत्मा को पहचाने बिना इस जीव को संसार में भ्रमण करते हुये अनेकों दुःख उठाना पड़ते हैं । अतः अब तो बाहरी दुनिया को देखना बन्द करो और स्व को जानने का प्रयास करो। दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप करना धर्मात्मा जीव का कार्य नहीं है । वह तो
775