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पढ़ने से पाप भावों से भयभीतता होती है । इन ग्रन्थों में कर्म प्रकृतियों का बंध, उदय, सत्व और क्षय आदि का अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से निरूपण किया गया है जिनको पढ़ने से उपयोग विषय - कषाय से रक्षित होता है और श्रद्धा दृढ़ होती है, ज्ञान व चरित्र बढ़ता है तथा आचार्यों के प्रति बहुमान जगता है कि वे कैसे ज्ञान के समुद्र |
चरणानुयोग के ग्रंथों में चारित्र का क्रमिक वर्णन है, सम्यक्त्व से लेकर महाव्रत पर्यन्त तक एकादश प्रतिमायें, फिर मुनि के 28 मूल गुणों का और आगे फिर अभेदरूप निश्चय परमध्यान का जो बाह्य और अन्तरंग आचरण का वर्णन है, उसको पढ़कर कितने ही मनुष्य इस सिद्धांत के श्रद्धालु हो जाते हैं ।
द्रव्यानुयोग के ग्रंथों में आत्म द्रव्य के गुण पर्यायों का, षटद्रव्य, पंचास्तिकाय, 7 तत्त्व, 9 पदार्थ आदि का बड़ा वैज्ञानिक वर्णन किया गया है । यह जीव (उन तत्त्वों को समझकर ) बाह्यवृत्तियां से निवृत्त होकर, क्रमशः अन्तरंग में सहज शुद्ध स्वभाव में प्रवेश करता है।
भेदविज्ञान, अर्थात् आत्मज्ञान ही कल्याणकारी है, अन्य सभी ज्ञान मिथ्याज्ञान हैं और संसार - परिभ्रमण को बढ़ाने वाले हैं । आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कलश 131 में लिखते हैं कि
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भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाः ये किल कचन् । अस्यैवाभावतो बद्धा, बद्धा ये किल केचन् ।।
जो भी जीव आज तक बंधे हैं, व सभी बिना भेदविज्ञान से बंधे हैं और जितने भी जीव आज तक छूटे हैं, वे सभी भेद - विज्ञान से ही छूटे हैं।
भेदविज्ञान हो जाने के बाद ज्ञानी जीव सांसारिक भोगों से विरक्त हो जाता है । बहुत मानव यह कहते हैं की भोग खूब भोगो लेकिन ज्ञान प्राप्त करो । परन्तु अमृत व जहर एक जगह नहीं रह
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