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कहलाते हैं। पूर्व में बताये गये पाँच ज्ञानों के साथ इन तीन कुज्ञानों को मिलाकर ज्ञान के 8 भेद होते हैं। छहढाला ग्रंथ मे लिखा है
जे पूरब शिव गये, जाहिं अब आगे जै हैं । सो सब महिमा ज्ञानतनी मुनिनाथ कहै हैं ।। विषय - चाह दव- दाह जगत, जन अरनि दझावै ।
तासु उपाय न आन, ज्ञान- घनघान बुझावे ||
जिनेन्द्र भगवान कहते हैं कि जो जीव पहले मोक्ष गए हैं, वर्तमान में जा रहे हैं और भविष्य में भी जो जीव मोक्ष जाएंगे, वह सब इसी ज्ञान का प्रभाव है । इन्द्रिय-सुखों की चाह दावाग्नि के समान है, जो जगत के जनसमूह रूपी वन को घेरकर सब ओर से जा रही है । इस दावाग्नि को ज्ञान रूपी मेघसमूह ही बुझा सकते | अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है ।
पुण्य-पाप- फलमाहिं, हरख बिलखौ मत भाई । यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसै फिर थाई ।। लाख बात की बात यहै, निश्चय उर लाओ । तारि सकल जग - दन्द - फन्द, निज आतम ध्याओ ।।
हे भाई! पुण्य के फल में हर्ष मत करो और पाप के फल में शोक मत करो । यह पुण्य और पाप का फल तो पुद्गल की अवस्थाएं हैं, जो पैदा होती हैं और नष्ट हो जाती हैं और फिर पैदा हो जाती हैं । लाख बात-की- बात तो यही है, इस बात को निश्चय से हृदय में धारण करो और जगत के दन्द - फन्द को छोड़कर सदा अपनी आत्मा का ध्यान करो ।
स्वाध्याय करने से शान्ति मिलती है, विषय-भोगों से उदासीनता आती है, धर्म में अनुराग बढ़ता है, संसार से भय और शरीर से वैराग्य होता है, तत्त्वज्ञान जागृत होता है, कषायें मन्द होती हैं और
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