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यह मानुष-परजाय, सुकुल सुनिवो जिनवानी ।
इह विधि गये न मिलै, सुमणि ज्यों उदधि समानी ।। इसलिए श्री जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए तत्त्वों का अभ्यास करना चाहिए और संशय, विभ्रम और विमोह को छोड़कर अपनी आत्मा का पहचानना चाहिए। यह मनुष्य पर्याय पाना, उसमें भी उत्तम कुल पाना और जिनवाणी सुनने का सुयोग प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। यदि बिना आत्मज्ञान के इस दुर्लभ अवसर को हमने खो दिया तो इसका फिर से मिलना वैसा ही दुर्लभ है, जैसे विशाल समुद्र में गिरे हुए किसी उत्तम-रत्न का पुनः मिलना कठिन ।
धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै । ज्ञान आपका रूप भये, फिर अचल रहावै ।। तास ज्ञान को कारन, स्व-पर-विव क बखानौ ।
को टि उपाय बनाय भव्य, ताको उर आनौ ।। धन-सम्पत्ति, कुटुम्बीजन, हाथी-घोड़, राज्य आदि कोई भी अपने आत्मा के काम नहीं आता है। केवलज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है। क्यांकि वह एक बार हाने पर आत्मा के साथ स्थायी रूप से रहता है। उस ज्ञान का मुख्य कारण, अपने पराए का विवेक या भदविज्ञान कहा गया है। इसलिए हे भव्य जीव! करोड़ों उपाय करके जैसे-बने-तैसे उस भेदविज्ञान को हृदय में धारण करो | भेद विज्ञान न होने के कारण ही यह जीव शरीर के साथ तन्मय होकर, शरीर को अपनी निजी वस्तु मान लेता है, बल्कि शरीर को ही आत्मा समझ बैठता है। और शरीर की सेवा करने में ही अपना यह दुर्लभ मनुष्य जीवन समाप्त कर देता है। मनुष्य को सबसे प्रिय अपना शरीर ही होता है। माता पिता, जो पुत्र के साथ प्रम दिखलाते हैं, उसका सबसे
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