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आम्रवृक्ष को ढूँठ सा खड़ा देख वैराग्य को प्राप्त हो गया और उसने जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर ली ।
एक दिन वे मुनिराज विहार करते हुये उज्जयनी में आहारार्थ पहुँचे। किसी एक घर के आँगन में वे प्रविष्ट हुए । वह घर कामसुन्दरी वेश्या का था । वेश्या को देख मुनिराज मोहित हो गये और वहीं रहने लगे। बारह वर्ष व्यतीत होने के बाद किसी दिन वेश्या के पैर के अंगूठे पर कुष्ठ को देख वैराग्य भाव जागृत हो गया और उन्होंने पुनः दीक्षा ले ली। इस प्रकार से गौरसंदीप मुनिराज वेश्या को देखने मात्र से भ्रष्ट हो गये थे ।
जो व्यक्ति अपने शील व्रत की रक्षा नहीं करते, वे दुर्गतियां में भ्रमण करते हुये दुःखों को भोगते हैं । अतः अपने शील की रक्षा के लिये किसी भी स्त्री पर रागपूर्वक दृष्टि नहीं डालनी चाहिये ।
एक बार शुक्राचार्य अपने आश्रम में अपनी शिष्य मण्डली को अध्ययन करा रहे थे, आज नया पाठ शुरू किया । "माता स्वस्त्रादुहित्रा वा" इस श्लोक का उच्चारण करते-करते आचार्य एक दम चुप हो गये और अकस्मात् उनका हृदय सन्देहानुकूल हो गया। वे ज्यों-ज्यों सोचने लगे त्यों-त्यों उनका सन्देह बढ़ता गया, कभी वे समझते थे कि यह श्लोक ठीक नहीं है, यह सब उनकी बुद्धि को ठीक समझते हुये श्लोक को अशुद्ध ठहराते थे । श्रद्धालु शिष्यगण श्लोक की व्याख्या सुनने की प्रतीक्षा में चुपचाप बैठे थे । इस प्रकार संध्या का समय निकट आ गया । आचार्य ने शिष्यों से कहा लगता है वेद व्यास के विचार शिथिल हो गये हैं, अतएव अशुद्ध रचना बन गई है । जब तक मेरा सन्देह दूर न हो, तब तक तुम्हारा धर्म शास्त्र का पाठ भी बन्द है। इतना कहकर शुक्राचार्य वेद व्यास जी के आश्रम में
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