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है। परिग्रह की मूर्छा त्यागो। लालच ऐसी ही चीज है, यह बाह्य परिग्रह क्या-क्या नहीं कराता। पचास हजार रुपया सेन्ट्रल बैंक में जमा करा दो तो यह फिक्र रहती है कि कहीं बैंक फैल न हो जाये | य बाह्य पदार्थ ऐसे ही हैं कि जहाँ जाते हैं वहाँ ही अविश्वास पैदा हा जाता है | और की बात, तो जाने दो, अपरिग्रही गुरुओं पर भी परिग्रही का अविश्वास जम जाता है।
एक पौराणिक कथा है कि वर्षा योग में एक साधु ने एक पेड़ के नीच चौमासा किया। एक सेठ उन साधु की वैयावृत्ति करने लगा। यह सेठ पास के ही गाँव का रहने वाला था। उसके पास काफी धन था, परन्तु उसका पुत्र कुपुत्र निकल गया था। यदि उसके हाथों में उसका धन चला जाये तो वह समाप्त कर दे | यह समझकर उसने सारा धन लाकर उन साधु जी के निकट ही कहीं भूमि में गाड़ दिया |
और स्वयं सोचता है कि धन की रक्षा तो यहाँ हो ही रही है। यहाँ रहकर मैं चार महीने साधु जी की सेवा करूँगा। परन्तु कुपुत्र ने उसे धन गाड़ते देख लिया था। तो अवसर पाकर वह सारा धन चुपचाप ले गया । चार माह बीतने के उपरान्त साधु जी विहार कर गये । उसके बाद सेठ भी अपना धन निर्दिष्ट स्थान पर खोद कर ढूंढ़ने लगा तो उसे कुछ भी नहीं मिला। तब सेठ जी ने विचार किया कि मैंने ता साधु की बड़ी भक्ति के साथ सेवा की थी और वह ही मरा धन निकाल कर ले गये | तब वह सेठ साधु जी के पास पहुँचा और उन्हें तरह-तरह की बातें किस्सों के रूप में कहकर समझावे और सारी बात प्रत्यक्ष से न कह | साधु यह सब समझ गया कि आखिर मामला क्या है | अतः उन्होंने भी शांति से उत्तर में कई कथायें कह दीं। जिनमें भावार्थ यह था कि हमने तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है, तरा तो एकमात्र भ्रम है। सेठ जी का वह कुपुत्र पीछे खड़ा होकर यह
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