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इस नहीं पीना चाहते हो और यदि इसे जीवित भी करना चाहते हो तो यदि कहो तो इस दवा को मैं ही पी लूं | तब सभी ने एक साथ कहा कि हाँ – हाँ महाराज, आप ही इसे पी लें, आपका तो आगे-पीछे काई रोने वाला भी नहीं है, और संत का ता जीवन ही परोपकार के लिये होता है | तब संत ने उस दवा को पी लिया और घर से जंगल की ओर जाने लगा। तभी युवक भी उठ गया और वह संत के पीछे-पीछे जाने लगा और बोला – बाबा जी ! मुझ सत्य की प्रतीति हो गई है। यह संसार स्वार्थी है | सारे रिश्ते नाते सिर्फ सुख एवं प्रयाजन के साथी हैं और दुःख में व्यक्ति अकेला होता है। परिवार वालों ने उस पर बहुत आत्मीयता दिखाई, उसे रोकने लगे तब युवक ने कहा कि मुझे ज्ञान हो गया है कि इस संसार में मरा कोई नहीं है, मैं अनाथ हूँ | मुझे कहाँ जाना है, कहाँ नहीं जाना है, ये आपसे पूछने की आवश्यकता नहीं है। अब मैं अपने घर जा रहा हूँ और वह संत के चरणों मे गया और फिर सन्त का ही हा गया तथा जैनश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। उसे यथार्थ समझ में आ गया कि यह संसार कितने स्वार्थ के धागों से बुना गया है। ___ वास्तव में एकत्व की प्रतीति ही आकिंचन्यता की उपलब्धि है। वस्तुतः संसार में कोई किसी का नहीं है, संसार का हर व्यक्ति अकेला है। कोई चाहे तो भी किसी का साथ नहीं दे सकता है | कोई हमारा कितना भी आत्मीय क्यों न हो, अगर हमारे सिर में दर्द है तो सामने वाला हमारे लिये सहानुभूति तो प्रकट कर सकता है, पर दर्द नहीं बाँट सकता। अतः हम अकेले ही सुख-दुःख के भोगी हैं। हमारा कोई भी साथी नहीं है। इसलिये हमें स्वीकारना चाहिय कि इस संसार में कुछ भी हमारा नहीं है। इस जीव से बाहर कोई पदार्थ इस जीव का शरण नहीं है | इस
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