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बाह्य समागम तो कर्म को ठाठ है । पुण्य का जहाँ उदय रहता है वहीं धन रह सकता है। अतः हमेशा दान करते रहना चाहिये । दान ऐसा है कि जो परभव में सुखी होने के लिये कलेवा है । सद्गृहस्थ वही है जो अपने धन का सदुपयोग परोपकार में करता है | दान प्रकृति वाले महापुरुषों को दान न दे सकने की परिस्थिति पर विषाद होता है
एक गरीब उदार कवि था दाने-दाने को मुहताज । उसकी ऐसी प्रकृति थी कि उसको जो मिल जाता उसे वह भिखारियों को दे देता था। वह कवि था । उसकी पत्नी ने कहा- हम इतने दुःख पा रहे हैं I जाओ, राजाभोज के दरबार में एक कविता बनाकर ले जाओ, देखो वह कवियों का बड़ा आदर करता है और कविता सुनाने वाले को लाखों रुपया दान देता है । वह दरबार में कविता ले गया और सुनाने लगा
कुमुदवनमश्रि श्रीमंद भोजखंड, त्यजति मुदमूलकः उदयमहिमरश्मिर्यात शीता शुरस्त, प्रीतिमाश्चक्रवाकः । । हतविधिलचितानां हि विचित्रो विपाकः । ।
जिसका भावार्थ यह है कि कर्म का फल बड़ा विचित्र है । प्रभात काल होते ही कमलनियों का वन तो शोभारहित हो गया है और कमलों का वन शोभा सहित हो गया । हे प्रभात! तेरे आते ही एक का नाश हो रहा है और दूसरे का उदय हो रहा है । सुबह होते ही उल्लू का हर्ष नष्ट हो गया और चकवा सुखी हो गया । प्रभात होते ही सूर्य का उदय हो रहा है और चन्द्रमा अस्त को प्राप्त हो रहा है। कर्म क प्रेरे हुये प्राणी का बड़ा विचित्र स्वभाव है। इस कविता पर प्रसन्न होकर राजा ने उसको एक लाख रुपया दिया। ज्यों ही वह राज
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