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घी। यह क्या है? झूठ-मूठ की कोरी गप्पों से कुछ नहीं मिलता।
इस अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य जीवन को बहुत सम्हालकर रखना चाहिये | सदा सत्य बालना चाहिये | जो प्रामाणिक बात हो उसे ही बोलना चाहिये । एक मनुष्य भव ही एसा है, जिसमें दान किया जा सकता है, त्याग किया जा सकता है। यदि इस भव में भी कुछ न कर सके अपने कल्याण क लिये, तो जैसे और भव बिताये, वैसा ही यह भव भी व्यर्थ चला जायेगा । जिन्हें आत्मकल्याण करना हो, उन्हें चाहिये कि अपनी शक्ति अनुसार चारों प्रकार का दान दें। बाह्य समागम तो कर्म का ठाठ है | पुण्य का जहाँ उदय रहता है, वहीं धन रह सकता है। दान ही एक ऐसा है जो परभव में सुखी होने के लिये नास्ता है | सद-गृहस्थ वही है जो अपने धन का सदुपयोग परोपकार में करता है।
दान देत समय दाता के परिणाम विशुद्ध होना चाहिये । विशुद्ध भावों पर सुगति की प्राप्ति होती है। दान देने की बात छोड़ा, केवल अनुमोदना करने वाला भी उत्तम भोग भूमि में जन्म लेता है। जब राजा बज्र जंघ एवं उनकी रानी श्रीमती भक्तिपूर्वक मुनियों को आहार दान दे रहे थे, उस समय सिंह, नेवला, बैल, बन्दर आदि पशु दातार की प्रशंसा कर रहे थे । दान के माहात्म्य स राजा-रानी को भागभूमि की प्राप्ति हुई और अनुमोदना करने वाले भी उसी भाग भूमि में गये| कर्मभूमि के प्रारम्भ में ब्रजजंघ का जीव तीर्थकर आदिनाथ तथा रानी का जीव राजा श्रेयांस के रूप में पैदा हुआ। पर ध्यान रखना, सद्भावना पूर्वक केवल स्व-पर के कल्याण की भावना से दिया गया दान ही वास्तविक दान है। हमारा दान मान बढ़ाई के लिये या किसी लौकिक इच्छा से नहीं होना चाहिये ।
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