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ज्यादा भीख मिली, पर एक दाना देने का मलाल तो बना ही रहा। भिखारी शाम को घर लौटा, उदास मन स उसने जैसे-ही भीख को उडेला तो वह एक दम से छाती पीट-पीट कर रोने लगा, क्योंकि उन सारे दानों में उस चमचमाता हुआ केवल एक स्वर्ण का दाना दिखा। भिखारी को समझत देर न लगी। उसने रोते-रोते अपनी पत्नी से कहा कि काश! यदि मैं सम्राट का ये सारे दाने दे देता तो मेरे सारे दाने स्वर्ण के हो जाते ।
दिया गया ही स्वर्ण का होता है, पास में रखा हुआ तो माटी का रह जाता है।
श्रावक को गृहस्थी के कार्य करने पड़ते हैं। आरम्भ-परिग्रह के कारण उन्हें हमेशा पाप कर्मा का बंध होता रहता है। उसकी शुद्धि के लिये उन्हें प्रतिदिन दान अवश्य करना चाहिये ।
जिस तालाब में पानी आन का द्वार हो पर निकलने का द्वार न हो तो उसका क्या हाल होता है? किसी कवि ने लिखा है -
बिना दान को द्रव्य, औ बिन मौरी को ताल |
कुछ ही दिन में देखलो, रावण जैसा हाल || जिस प्रकार कपड़े मैले हो जाने पर उन्हें धोना अनिवार्य होता है, उसी प्रकार गृहस्थ का गृहस्थी के काम करने से होने वाले पाप को धोने के लिये दान करना अनिवार्य है। यदि हम कपड़ों को पहनते तो रहें और धोएं कभी नहीं, तो वे कपड़े मैले होकर सड़ जायेंगे और फट जायेंगे, उसी प्रकार जो गृहस्थ दान नहीं देता, उसकी आत्मा भी पाप कर्मों से मैली होकर संसार में भ्रमण करती रहती है।
'परमात्म प्रकाश' ग्रन्थ की टीका में पं. दौलतराम जी न लिखा है
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