________________
ग्रहकर्मणापि निचित कर्म विमार्ष्टि खलु गृह विमुक्तानाम | अतिथानां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ।।
जिस प्रकार रक्त से सने हुये वस्त्र को जल से धोकर शुद्ध कर लिया जाता है, उसी प्रकार आरम्भ - परिग्रह से उत्पन्न पाप को गृह-त्यागियों को आहार दान आदि देकर शुद्ध कर लिया जाता है ।
धन की तीन ही गति मानी गई हैं- दान, भोग और नाश | पूजा में पढ़ते हैं 'निज हाथ दीजे, साथ लीजे, खाया खोया बह गया ।'
जो देता है, वह पाता है और जो संग्रह करता है, उसका सब यहीं पड़ा रह जाता है । जो दिया जाता है, वह कीमती स्वर्ण-सा हो जाता है, किन्तु जो संग्रह कर लिया जाता है, वह मूल्यहीन माटी का रह जाता है ।
एक बार राज्य पर संकट आया हुआ जानकर राजा ने एक ज्योतिषी से उसके निवारण का उपाय पूछा। ज्योतिषी ने कहा राजन् ! संकट का निवारण तो हो सकता है पर आपको प्रातः काल भीख माँगने के लिये राजपथ पर निकलना होगा और जा भी भिखारी आपको सबसे पहले मिले उससे भिक्षा माँगनी होगी । भिक्षा में जो भी मिले उसे लाना और महलों में सुरक्षित रख देना, वही तुम्हारे संकट के निवारण में कारण होगा ।
राजा रात भर बेचैन रहा, सम्राट और याचक बनकर निकले, जिसने आज तक फैले हुये हाथों को दिया है, वही आज दूसरों के सामने हाथ फैलाये । पर करे भी क्या ? राज्य की सुरक्षा का प्रश्न था । राजा सुबह-सुबह अपने रथ पर बैठकर राजपथ पर निकला। यहाँ एक भिखारी के मन में आया कि वर्षों बीत गये भीख माँगते - माँगते, पर आज तक पूर्ति नहीं हो पाई, क्यों न हो आज राजा के दरबार में
494