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इस दुर्लभ मनुष्य-जीवन को पाकर श्रेष्ठ कर्तव्य यह है कि संयम को धारण कर तपश्चरण करें । यह आयु क्षण-क्षण में ऐसी बही जा रही है, जैसे पहाड़ से गिरने वाली नदी । जितना पानी बह गया, वह फिर ऊपर नहीं आता। इसी तरह जितना समय निकल गया, वह फिर वापिस नहीं आता । तप करने के लिये, ज्ञान की साधना करने के लिये हमें जल्दी करनी चाहिये । अपना जीवन व्यर्थ न गमावें । यदि समय निकल गया, तो बाद में पछतावा ही हाथ लगेगा। यह मनुष्य अपने बचपन की उम्र तो यों ही खेल-खिलौने में रमकर गँवा देता है, किशोर अवस्था आने पर नाना तरह की कल्पनाओं में उलझकर अपना सारा समय खा देता है । जवानी में यह अनेक प्रकार के गोरख धंधों में फँसकर अपनी जवानी का समय गँवा देता है और वृद्धावस्था में तो बस उल्लू - जैसे अंध बनकर खाट पर पड़े-पड़े अपनी उम्र व्यर्थ खो देते हैं ।
अतः आप अपनी शक्ति को मत छिपाइये, यह महान अपराध है । जितनी शक्ति लौकिक कार्यों में लगाते हो, उतनी इधर भी लगाओ । योगीजनों को भी अपने महान् बल का स्वामित्व एक दिन में प्राप्त नहीं हो गया था। उन्होंने भी गृहस्थ अवस्था में तप के द्वारा धीमे-धीमे अपने बल को बढ़ाया था और उत्कृष्ट तप धारण करने के योग्य होकर आज योगी कहलाने लगे हैं ।
सम्यक तप निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त कराने वाला होता है । तप चारित्ररूप होने से मोक्ष मार्ग बनाता है, जिस पर चलकर तपस्वी मोक्ष को प्राप्त करता है । यह बात निम्न दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाती
है ।
चम्पापुरी नामक नगर में एक बहुत प्रतापी एवं कामदेव के समान
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