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है। क्रोध हर हाल में बुरा है, चाहे वह संसारी हो या सन्यासी।
एक सन्त धूनी रमाये बैठे थे। संत जी का नाम श्री 1008 शान्तिप्रसाद जी था। एक युवक परीक्षा हेतु उनके पास गया | उन्हें प्रणाम किया। युवक ने कहा-बाबाजी ! धूनी में आग है? बाबा बोले-नहीं, इसमें कोई आग नहीं है | युवक ने सविनय कहा-बाबा! जरा कुरेद कर देखिये, शायद कुछ आग हा? बाबा ने गुस्से में कहा-कमाल के आदमी हो । अभी मैंन कहा न कि इसमें न कोई आग है और न कोई चिनगारी। युवक ने कहा-बाबा! आप माने या न मानं, पर मुझे चिनगारी दिखाई दे रही है | बाबा ने अपना चिमटा उठाया और फटकारते हुय कहा-मूर्ख ! तो क्या मैं अंधा हूँ? क्या मुझे दिखाई नहीं देता? युवक ने कहा-बाबा! अब तो कुछ-कुछ लपटें उठती दिखाई दे रही हैं। अब तो बाबा की क्रोधाग्नि और भड़क उठी और उन्होंने एक डंडा उठाकर युवक का दे मारा | युवक भागा और भागते-भागते बोला-बाबा! अब ता अग्नि पूरी तरह भड़क उठी है। आपका नाम अगर श्री 1008 शान्तिप्रसाद की जगह श्री 1008 ज्वालाप्रसाद होता तो ज्यादा सार्थक हाता।
क्रोध ज्वाला है, क्राधी ज्वालाप्रसाद है। गुस्सा करना हर जगह बुरा है। एक चीनी कहावत है-जो व्यक्ति मुस्कराना नहीं जानता, उसे व्यापार नहीं करना चाहिए। क्रोधी व्यक्ति सफल व्यापारी नहीं बन सकता।
वैज्ञानिक परीक्षणों के आधार पर मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि क्रोध से मनुष्य का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और उसक परिणाम स्वरूप उसके शरीर में रूक्षता आ जाती है। क्रोध करते समय मुख सूखता है तथा कंठ में रहने वाली जो ग्रन्थियां लार पैदा करती हैं,
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