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जो तप तपै खपै अभिलाषा, चूरे करम-शिखर गुरु भाषा। अर्थात् जो अभिलाषायें छोड़कर तपस्या करता है उसको इस लोक एवं परलोक में सुख की प्राप्ति होती है।
शरीर को कष्ट देने का नाम तपस्या नहीं है, कर्मों को क्षय करने का नाम तपस्या है। सभी को अपनी शक्ति अनुसार तप अवश्य करना चाहिए | एक बार एक संगीतज्ञ एक महात्मा जी का शिष्य हो गया। उसने सोचा -चलो शीघ्रता स साधना की गहराई में प्रवेश करें और वह दो दिन का, पाँच दिन का, सात दिन का, बारह दिन का, महीन-महीने का उपवास करने लगा। शरीर अस्थि कंकाल हो गया, आँखें धंस गईं, गाल पिचक गये | शरीर में दिव्यता के स्थान पर भयानकता ने डेरा डाल लिया । कोई उनके पास जाता भोजन के लिये पूछता तो सीधे मुँह उत्तर नहीं मिलता। प्रायः जो जबरन की साधना या त्याग करत हैं वे क्रोधी या चिड़चिड़े हो जाते हैं। महात्मा जी के पास किसी ने शिकायत की कि आपका संगीतज्ञ शिष्य तपस्या की अति कर गया है और उसके स्वभाव से संगीत गायब हा गया है | महात्मा जी ने उसे बुलाया और पूछा-सुना है तुम पहले बहुत बड़े संगीतज्ञ थे। हाँ महात्मन् | अच्छा एक बात बताओ-अगर तुम्हें वीणा से मधुर स्वर निकालने हों तो क्या वीणा के तार को एक दम ढीला छोड़ दते हो? नहीं महात्मन् | तो क्या एक दम तेज कस देते हो? नहीं महात्मन् । तो वत्स तुम्हें इस शरीर रूपी वीणा से परमात्मा रूपी संगीत को निसृत करना है। अगर साधना के माध्यम स शरीर के तारों को अत्यन्त कस दागे तो अन्तरात्मा के दर्शन नहीं होंगे और शरीर को विषय-भोगों में लगा दोगे तो भी आत्मानुभूति नहीं होगी। जो शक्ति अनुसार तपस्या करके इन्द्रिय और मन का निग्रह करता है, इच्छाओं को रोकता है, वही आत्मानुभूति कर पाता है।
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