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लगी। कुछ दिन बाद मुनिराज बोले-राजन्! अब तुम अपनी यह धन-सम्पदा वापिस ले लो तो वह पूर्व राजा बोलता है कि प्रभु अब कुछ नहीं चाहिये, अब तो मुझ यह धन-सम्पदा तुच्छ लग रही है, इसके कारण ता मैं पहले बहुत दुःखी था। दिन रात इच्छायें - चिन्तायें बनी ही रहती थीं, पर अब जब मरी समस्त इच्छायें समाप्त हो गई तो मुझे अपने अनन्त वैभव तथा असली साम्राज्य का पता चल गया। अब तो मुझ अपने रत्नत्रय खजाने का पता चल गया । जब इच्छायें थीं ता राजा दुःखी था और अब इच्छायें समाप्त हो गई तो वह सुखी हो गया । वास्तव में इच्छाओं का होना ही दुःख है और इच्छाओं का न होना ही सुख है। अतः अपनी शक्ति को पहचानो और इन इच्छाओं का घटाकर अपना कल्याण करो।
मन की इच्छाओं पर विजय पाना आसान बात नहीं है | कामनाओं का कलश तो कभी भरा ही नहीं जा सकता, क्योंकि ऊपर से ता वह बहुत सुन्दर दिखता है पर उसके नीचे कोई आधार (पैंदी) नहीं है | और ऐसी स्थिति में आप कितना ही भरते जाइये, कलश खाली का खाली रहेगा।
बालक जन्म लेता है, बड़ा होता है, बड़ा होने के बाद में बूढ़ा होता है और फिर यहाँ से जाने का समय आ जाता है। देह मरती है, बार-बार मरती है लकिन मन की तृष्णा आज-तक नहीं मरी। शरीर बूढ़ा होता है, जर्जर होता है, किन्तु मन बूढ़ा नहीं होता। विचित्रता तो यह है कि देह जैसे-जैसे बूढ़ी हाती है, मन की आशा वैस-वैसे जवान होती जाती है | कबीरदास जी कहते हैं -
मन मरा माया मरी, मर मर जाय शरीर | तो भी तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ||
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