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पुरुष ने कहा- हे राजन! इस सामने वाले जंगल में एक दिगम्बर मुनि बैठे ध्यान लगा रहे हैं। उनके समान इस संसार में कोई सुखी नहीं
| राजा ने जंगल में जाकर देखा कि एक दिगम्बर निर्ग्रन्थ मुनि ध्यान में लीन हैं, मुख पर तेज चमक रहा है, उन्हें देखते ही राजा प्रसन्न हो गया और अपने लड़के को ले आया तथा महाराज को नमस्कार कर बोला महाराज आप बहुत सुखी हैं । मुनिराज बोले- हे राजन! मैं बहुत सुखी हूँ । राजा ने कहा- महाराज! मेरा यह पुत्र बीमार है, ज्यातिषी ने बताया है कि यह किसी सुखी व्यक्ति के कपड़े पहनने से ठीक हो सकता है। महाराज बोले- देखो मैं तो कपड़े पहनता नहीं, राजन् सच्चा सुख तो त्याग में है, इच्छाओं को घटाने में है, जिसने इच्छाओं को घटाकर उन्हें जीत लिया वही सुखी बना है | अतः त्याग-तपस्या के माध्यम से अपनी इच्छाओं को जीतने का प्रयास करो । महाराज ने उस लड़के को आशीर्वाद दिया और वह ठीक हो गया । आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा- जब भी मुक्ति मिलेगी, तप के माध्यम से ही मिलेगी । विभिन्न प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर जो आत्मा की आराधना में लगा रहता है उसे ही मुक्ति की प्राप्ति होती है ।
जब कोई परम योगी, जीव-रूपी लोह तत्त्व को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र रूपी औषधि लगाकर तप रूपी धौंकनी में धौंककर तपाते हैं, तब वह जीव रूपी लोह तत्त्व स्वर्ण अर्थात् परमात्मा बन जाता है । संसारी प्राणी अनन्त काल से इसी तप से विमुख हो रहा है । और डर रहा है कि कहीं जल न जायें । पर विचित्रता यह है कि आत्मा के अहित करने वाले विषय - कषाय में निरन्तर जलते हुये भी सुख मान रहा है । "रागादि प्रगट ये दुःख देन, तिनही का सेवत गिनत चैन ।" पर ध्यान रखना जब भी इस
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