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खाये ही तृप्ति का अनुभव कर रहा है। वह कभी तृप्त न हाने वाला बकरा और कोई नहीं मनुष्य का मन है, जिसे कितनी भी इन्द्रिय-विषय रूपी घास खिलाओ कभी भी तृप्त नहीं हाता| उस तृप्त करने का उपाय केवल इच्छा निरोधरूपी तप (वह लकड़ी) है | जो भी अपने मन को, अपनी इच्छाओं को जीत लेता है वह परमात्म साम्राज्य को प्राप्त कर लेता है।
यदि इस मन का तृप्त करना है इस पर विजय प्राप्त करना है, तो अपनी इच्छाओं का निराध करो। हम और आप सभी की आत्मा परिपूर्ण है, सब प्रकार से ज्ञान और आनन्दमय है। सब बातें इस आत्मा में ठीक हैं। केवल एक गड़बड़ी इस आत्मा के अन्दर है, जिसस सारा बिगाड़ हा गया | वह गड़बड़ी क्या है? वह गड़बड़ी यह है कि इस आत्मा में इच्छाएं भरी हुई हैं | आप कुछ मत छाड़ो पर केवल इच्छाओं को ही निकाल दो तो सारे संकट समाप्त हो जायेंगे | इच्छाओं के समाप्त होने पर कषाय भी किस पर नखरे करेंगी। इच्छायें ही एक बन्धन है जो जीवों को बांधे हुये है | कोई किसी से बंधा हुआ नहीं है, केवल इच्छाओं ने ही बांध रखा है। ___ सुकौशल कुमार विरक्त हो गये। लोगों ने बहुत समझाया-अरे! अभी तुम्हारी कुमार अवस्था है, अभी तुम्हारी शादी को कुछ ही वर्ष हुये हैं, तुम्हारी पत्नी के गर्भ है। उत्पन्न होने वाले राजकुमार को राज-तिलक कर जाओ,फिर चाहे घर-द्वार छोड़ देना। सुकौशल पिंड छुड़ाने के लिये कहत हैं अच्छा जो राजकुमार गर्भ में है उसे मैं राज्य तिलक किय देता हूँ | सुकौशल को बंधन में बंधने की इच्छा नहीं थी तो उनके कोई बन्धन नहीं था | गृहस्थी में क्या बंधन है? अरे! नहीं, गृहस्थी में बन्धन कहाँ है, केवल इच्छाओं के कारण ही फँसे हुये हैं। हमें तो बाल-बच्चों की फिक्र है, घर द्वार कुटुम्ब
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