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परेशानी यह थी कि उन्हें प्यास तीव्र लगी थी। राजा के लिये भी पानी ले जाना जरूरी था और आसपास कहीं पर भी पानी नहीं दिख रहा था।
दोनों सिपाही निराशापूर्वक लौट आए और सेनापति को सारी स्थिति बताई। सेनापति ने उन्हें डाटते हुये कहा-तुम दोनो मूर्ख हो । तुम्हें ढंग से काम लेना नहीं आता | चलो अब मैं जाता हूँ | __ मदांध सेनापति भी उसी झोपड़ी पर पहुँचा गया। वहाँ पहुँचकर उस अंधे व्यक्ति से बड़े रोबीले स्वर में कहा – 'ऐ अंधे! हमें पानी दे दो, मैं तुम्हें कुछ सोने की मोहरें दूंगा।
अंधे ने वाणी क भीतरी स्वर का पहचानते हुए कहा-अरे! तू पहले आने वाले सिपाहियों का सेनापति लगता है। लालच की मीठी चुपड़ी बातें बनाकर मुझ पर दबाव डाल रहा है | चला जा, यहाँ से, मैं तुझ-जैसे अहंकारी सनापति का पानी नहीं दूंगा। सेनापति भी यह सुनकर दंग रह गया और वह भी लौट आया ।
सेनापति को भी लौटता हुआ दखकर राजा स्वयं पानी लेने चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर सर्वप्रथम उसने अंध को नमस्कार किया और उनक समीप जाकर राजा बोला –ह भद्र! प्यास से गला सूख रहा है, यदि आप मुझे एक लोटा जल देंग तो आपकी मुझ पर बहुत कृपा होगी।
यह सुनते ही अंधे ने अपनी खाट विछाई | सत्कार पूर्वक राजा को उस पर बिठाया, फिर लोटे में जल भरकर बड़े सम्मान से राजा को पानी पिलाया। जब राजा की प्यास शांत हुई तब अंधा व्यक्ति अत्यन्त मीठे स्वर में बोला-मुझे लगता है कि आप राजा हैं, आप जैसे श्रेष्ठ पुरुषों का मैं बहुत सत्कार, सम्मान करता हूँ | यदि मेरे
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