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हैं | बेटे को तो बुलाआ, कि उससे पूछू कि वह बनना क्या चाहता है? वे बाले कल ही तो शादी हुई है? लड़का कहाँ स लाएं? जज ने भी माथा ठोक लिया? कैसे विचित्र हैं य लोग? कैसा है संसार? ।
एसा ही संसार है । यही असत्यार्थ है, यही मृग मरीचिका है, यही सुखाभास है। इसी सुखाभास में व्यक्ति अपनी जिंदगी बर्बाद करते चले जा रहे हैं, जिसका न आग कुछ है, न पीछे कुछ है। लेकिन वर्तमान में हम शेखचिल्ली बनते जा रहे हैं। शेखचिल्ली जैसी दशा हो रही है। एक शेख चिल्ली था, छाछ पीकर गुजारा करता था। छाछ में भी थोड़ा थाड़ा नवनीत (मख्खन) रहता है। प्रतिदिन कुछ नवनीत उसकी मूछों पर लग जाता था, और वह उस नवनीत को इकट्ठा करता जाता था, वह सोचता है वाह! मैं अपनी पूरी जिंदगी नवनीत को इकट्ठा करूँगा तो घी से घड़ा भर जायेगा, घी का बेचूगाँ तो पैसा आयेगा, और पैसा आ जायेगा तो मैं उससे गाय खरीदूंगा। फिर सोचता है कि यदि गाय आ जायेगी तो उसकी रखवाली के लिये घरवाली लाऊँगा | वह मेरे पैर भी दबायेगी। यदि उसने कभी गड़बड़ की तो लात मारूंगा और उसने मटके में लात मर दी, जो नवनीत इकट्ठा किया था, वह भी समाप्त हो गया।
एसे ही सभी लोग अपनी जिंदगी में लात मारत जा रहे हैं। असत्यार्थ और मृग मरीचिका में फँसने के कारण, भविष्य की महत्त्वाकांक्षाओं क कारण। सबसे ज्यादा इसी तरह दुःखी हैं। महत्त्वाकांक्षा है-मैं यह बनना चाहता हूँ। ऐसी महत्त्वाकांक्षाओं को जिसने छोड़ दिया उस व्यक्ति के आनंद का पार क्या है? वह तो कहता है, सारी चीजं छोड़ देता हूँ | जो सत्य का समझ जाता है, वह तो सब कुछ छोड़कर आत्मा क आनन्द में लीन रहता है। हम भगवान को ता मानते हैं पर उनकी बात नहीं मानते |
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