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जाता है । वह घर में रहते हुये भी नहीं रहता, वह जल से भिन्न कमल के समान रहता है ।
एक राजा के महल के पास एक साधु रहता था । राजा एक दिन साधु के पास आया और उससे अपने महल में चलकर रहने की प्रार्थना की। साधु ने कुछ सोचकर राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली। राजा ने साधु के बर्तन में अपने जैसा उत्तम भोजन परोसा, साधु ने भोजन कर लिया । एक बहुत सजे धजे कमरे में सुन्दर पलंग पर सोन के लिये कहा, साधु ने उसे भी मंजूर कर लिया। कहने का तात्पर्य यह है कि वह राजा की तरह ही ऐशो आराम से रहने लगा । यह देखकर राजा को लगा ये साधु तो ऐसे ही हैं, दूसरों के बारे में मन बहुत जल्दी खराब हो जाता है। आखिर एक दिन राजा ने पूछ ही लिया अब आपमें और मुझ में क्या अन्तर है? साधु ने कहा कि बाहर चलो, घूमने चलते हैं, वहीं बतायेंगे । राजा और साधु दोनां घूमने गये। जब वे शहर से काफी दूर आ गये तब राजा ने कहा महाराज ! वापिस चलिये, महल बहुत दूर छूट गया है। साधु ने कहा कि राजन् । आपका तो सब कुछ पीछे छूट गया है, परन्तु मेरा तो कुछ भी नहीं छूटा । आपमें और मुझमें यही अन्तर है । आप सबको अपना मानते हो, इसलिये आपका महल है, रानी है, सब कुछ है । आपका सब कुछ पीछे रह गया है, इसलिये आपको वापिस जाना है । परन्तु हमारा तो पीछे कुछ भी नहीं है, यह शरीर भी मेरा नहीं है, इसलिये हमें तो आगे जाना है ।
सारे दुःखों का मूल कारण है शरीर में अपनापन | राग-द्वेष की उत्पत्ति का कारण है शरीर में अपनापन । जितना शरीर को अपने रूप देखोगे, उतना - उतना रागद्वेष मोह बढ़ेगा और जितना हम शरीर को स्वयं से अलग देखेंगे, मोह पिघलने लगेगा |
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