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समझाया था पर अहंकार के कारण उसने किसी की बात नहीं मानी । मायाचारी व्यक्ति जिह्वारहित ही माना जाता है, क्योंकि उसकी बात पर कोई विश्वास नहीं करता और लोभ तो इन्सान की नाक ही कटवा देता है। ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जायेंगे जिनमें लोभ के वशीभूत होकर कितनों ने अपनी प्रतिष्ठा को धूमिल किया है।
श्री रामचन्द्र जी मर्यादा पुरुषात्तम मान जात हैं। उनका जीवन बड़ा ही प्रेरक /आदर्शमय रहा है, पर नीतिकार कहत हैं कि श्री राम भी एक जगह भ्रमित हा गये | सीता जी के कहने पर स्वर्ण मृग को पकड़ने दौड़ पड़े और सीता जी का हरण हो गया । एक स्वर्ण मृग के लोभ में श्रीराम यह भी भल गय कि मग तो मग होता है। सोने का कैसा मृग? पर क्या करें, मृग के रूप में आसक्त राम सीता सब कुछ भूल गये । ऐसा ही तो हमारा आतमराम लोभ लिप्साओं क स्वर्ण मृगों के पीछे बतहासा भाग रहा है और इसी कारण हमारी सुख-शान्ति की सीता खो रही है।
लोभ के साथ यह दिक्कत है कि जितना लाभ होता है उतना लोभ बढ़ता चला जाता है | जा हमने पाया है, अगर हम उसमें संतोष रख लेवें तो संसार में फिर ऐसा कुछ नहीं है जो पाने को शेष रह जाये | पाते काहे के लिय हैं? आत्मसंतोष के लिये | पर आत्म संतोष नहीं मिला और दुनिया भर की चीजें मिल गई। लाभी व्यक्ति को चाहे जितना भी लाभ क्यों न हा जाये, उसे कभी भी तृप्ति और संतुष्टि नहीं हाती | मनोवांछित लाभ होने के उपरान्त भी उसका मन असंतुष्ट रहता है।
एक बार एक पति-पत्नी महाराज के पास आये | पति कुछ उदास था। महाराज ने पूछा क्या बात है? आज कुछ परेशान दिख
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