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पड़ते हैं, यह स्वघात हुआ ।
मायाचारी का भेद मायाचारी के माता, पिता, भाई, स्त्री, पुत्र, ससुर, सास, साला भी नहीं ले पाते हैं, तो अन्य मानवों की तो बात ही क्या ? जिस प्रकार जंगल में विचरने वाला क्रूर-स्वभावी माया से युक्त तेंदुआ यात्री को देखकर सीधा-साधा निकलता है, यात्री उसको देखकर विचार करता है कि वह तो निकल गया, अब मेरे प्राण बच गये, इतना विचार कर ही रहा था कि तेंदुये ने वार कर दिया और पथिक को मार डाला। इसी प्रकार मायावी मानव वचन की अपेक्षा अत्यन्त मधुर भाषा को बोलते हैं और ऐसे प्रतीत होते हैं कि यही हमारे परम उपकारी सच्चे संबंधी हैं। जब वह भोला प्राणी उनकी मधुर वाणीरूपी जाल में भली प्रकार से फँस जाता है, तब वे उसके धन, जेवर, माल को लेकर शीघ्र ही भाग जाते हैं, जिससे वह रोता हुआ दुःखी हो जाता है ।
मायावी व्यक्ति दूसरों को फँसाने के लिये जाल बनाता है, परन्तु वह स्वयं ही उसमें फँस जाता है । जिस प्रकार मकड़ी दूसरे छोटे जीवों को फँसाने के लिये जाल बनाती है और विचार करती है कि इस जाल में सब जीव फँस जायेंगे, तब मैं सुख से उनको खाती रहूँगी, परन्तु वह अपने जाल में आप ही फँस जाती है । वह दुःखद मरण को प्राप्त करती है। बस, यही दशा मायाचारी मानवों की होती है ।
मायावी मनुष्यों के सदा आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान ही होता रहता है, जिसके कारण वह निरन्तर अशुभ कर्मों का आस्रव - बंध करता है और अन्त में मरण कर तिर्यंचादि दुर्गतियों में जाकर निरन्तर दुःखों को सहन करता है । इसके विपरीत जो सरल होता है,
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