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मन में (हृदय में) हमशा पवित्र विचार रखें और वाणी के द्वारा उन्हें बाहर प्रकट करें, यही आर्जव है, यही धर्म है। इसके विपरीत करने से अधर्म है | धर्म से स्वर्ग व मोक्ष तथा अधर्म स नरक व तिर्यच गति का मार्ग प्रशस्त होता है | मायाचारी का फल तिर्यच गति होता है । “माया तैर्य यग्योनस्य” | यदि मायचारी करेंगे तो तिर्यंच गति का बन्ध होगा। और तिथंच माने क्या? पशु, पक्षी, घोड़ा, गधा, कुत्ता, सूकर आदि | कोई गधा बनना चाहता है क्या? नहीं, बिल्कुल नहीं, हम गधा आदि भी नहीं बनना चाहत, गाय, भैंस, भेड़ आदि भी नहीं बनना चाहते और मायाचारी भी नहीं छोड़ना चाहते |
आचार्य कहते हैं कहाँ जाना है? स्वर्ग में। पर टिकिट तो बताओ, कहाँ का है? टिकिट मायाचारी से खरीदी गई है। पहले गाड़ी तो देख ला कहाँ जा रही है यह, जिसमें बैठकर हम सफर कर रहे हैं। वह तो सीधी तिथंच गति की ओर जा रही है, गाड़ी का मुख तिर्यंच गति की ओर है। गाड़ी छूट भी गई है, चल भी रही है और हम कह रहे हैं कि हम स्वर्ग जा रहे हैं। मतलब यह है कि किसी को जाना है बाम्बे और वह बैठ जाये दिल्ली की गाड़ी में, तो क्या वह बाम्बे पहुँच जायगा? नहीं! बाम्बे जाने वाला देहली की गाड़ी में बैठा है और देहली का टिकिट खरीदा है तो वह बाम्बे नहीं पहुँचगा।
इसी प्रकार जिसन तिथंच गति का टिकट खरीद लिया हो, मायाचारी कर रहा हो, वह स्वर्ग पहुँच जायेगा क्या? वह तो मूर्ख था। बम्बई जाना है और दिल्ली की गाड़ी में बैठ गया है और फिर भी कह रहा है कि मैं बम्बई जाऊँगा। पर हम भी कम नहीं हैं | मायाचारी छोड़ेंगे नहीं, क्रोध से मुख मोड़ेंगे नहीं, अभिमान का नीचा होने देंग नहीं, लोभ को कम करेंग नहीं और फिर भी यह दावा करते हैं कि हम जिनेन्द्र भगवान के भक्त हैं और हम भगवान बनकर
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