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रहना, लेकिन धर्म का काम हो, जब अपने अन्दर जाने की बात आए, तो जरूर सीधे बन जाना ।
यह मायाचार जिस किसी के भी अन्दर आ जाता है, वहाँ आर्जव धर्म नहीं हो सकता, वहाँ सरलता नहीं होगी, चाहे वह गृहस्थ हो अथवा साधु । जिस प्रकार बिच्छू का डंक सारे शरीर में जलन पैदा कर देता है, उसी प्रकार यह माया कषाय व्यक्ति के समस्त गुणों को नष्ट कर देती है ।
रानी पुष्पदन्ता के पति ने जब दीक्षा ले ली तब पुष्पदंता ने सोचा मुझे भी दीक्षा ले लेनी चाहिये । उसने आर्यिका माता की दीक्षा ले ली। परन्तु उसके मन में किंचित मात्र भी वैराग्य नहीं था । वह दिन भर अपने शरीर का श्रृंगार करती रहती थी और शरीर पर सुगन्धित तेल लगाती थी । एक दिन आर्यिका ब्रह्मिला ने उससे कहा कि यह कार्य तुम्हारे योग्य नहीं है । यह सुनकर पुष्पदन्ता ने बृद्धिला से कहा कि मेरे शरीर में यह स्वाभाविक सुगन्ध है, मैं तेल आदि नहीं लगाती हूँ । इस मायाचार के कारण वह मरकर एक सेठ के यहाँ पुत्री हुई, जिसके सारे शरीर से दुर्गन्ध आती थी । उससे नगर के सारे लोग घृणा करते थे, उसे हेय दृष्टि से देखते थे। उसने मायाचार किया था और वह भी गुरु के साथ। इसका फल उसे ही भोगना पड़ा । जो भी ऐसा करेगा, उसको भी उसका फल भोगना पड़ेगा । भले ही वर्तमान में पूर्व पुण्य कर्म के उदय से हमारा कुछ कार्य मायाचारी से होता हुआ दिखे। लेकिन अन्त मे उसका परिणाम बुरा ही निकलता है ।
आचार्य पद्मनन्दी महाराज ने लिखा है - यह मायाचारी तो दुरात्माओं का लक्षण है ।
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