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का अंगूठा थोड़ा-सा दबा दिया। रावण पर्वत के नीचे दबकर राने लगा। तभी से इसका नाम रावण पड़ा | मंदोदरी ने बाली महाराज से प्रार्थना की कि इन्हें माफ कर दो, तो बाली ने अपना अंगूठा उठा लिया। रावण का मान खंडित हो गया । सनतकुमार चक्रवर्ती ने रूप का मान किया, खण्डित हुआ। एक बार दवों में चर्चा हुई कि सनतकुमार चक्रवर्ती बहुत रूपवान् हैं। एक देव देखने आया। सनतकुमार कहने लगे कि इस समय मेरा रूप क्या देखते हो, कल राज-सभा में देखना | सनतकमार अगले दिन श्रृंगार करके राजसभा में आय और बैठे | वह देव उनका रूप देखकर बोला-जो रूप मैंने कल अखाड़े में देखा था, वह आज नहीं है | तभी उसके रूप का गर्व खंडित हो गया। उन्हें वैराग्य हो गया। मैं इस नश्वर शरीर का अभिमान कर रहा हूँ जो प्रतिपल बदल रहा है । और उन्होंने दीक्षा ले ली। बाद में मुनि अवस्था में उन्हें उसी सुंदर शरीर में कोढ़ हो गया था, जो लगभग 700 वर्ष तक रहा | देवों में पुनः चर्चा हुई कि शरीर से यदि कोई निर्मोही है तो वे सनतकुमार मुनिराज हैं। उस देव को आश्चर्य हुआ। इन्हें तो अपने रूप का इतना अहंकार था। ये शरीर से इतने निर्मोही कैसे हा गये? उसन वैद्य का रूप बनाया और उन महाराज के आस-पास घूमने लगा और जोर-जोर से बोलने लगा कि मेरे पास कोढ़ की दवा है | उस लगा ये महाराज मुझे अपने पास बुलायेंगे, पर महाराज ने उसकी तरफ देखा भी नहीं | तब वह स्वयं महाराज के पास जाकर बोला-मैं आपके इस रोग को ठीक कर सकता हूँ | महाराज बोले-यह रोग तो शरीर को है, मुझे नहीं है। मुझे इससे काई फर्क नहीं पड़ता। सबसे बड़ा रोग तो जन्म-मृत्यु का है। यदि आपके पास इसकी दवा हो ता बताओ।
वह देव महाराज के चरणों में गिर गया और बोला-महाराज!
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