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________________ आचार्य विद्यानन्दि जी महाराज, जिन्होंने 'श्लोकवार्तिक' ग्रंथ की रचना की थी, अपने पूर्व जीवन में बहुत बड़े विद्वान् थे। एक बार एक मुनि महाराज मंदिर में “देवागम स्तोत्र' का पाठ कर रहे थे। मंदिर क बाहर से गुजरते समय विद्यानन्दि नाम के इन विद्वान् ने उस पाठ को सुना और सुन करके वहीं खड़े हो गये | उन्हें बड़ा अच्छा लगा। वे मन्दिर में महाराज के पास गये और हाथ जोड़कर बोले-महाराज जी! आप मुझ इसका अर्थ समझा दीजिये, मुझ यह स्तोत्र अच्छा लगा। देखिय, इतने ऊँचे पद पर रहत हुये भी वे महाराज बड़ी सहजता से कह देते हैं कि इसका अर्थ मुझे नहीं मालूम | कितनी सरलता है? महाव्रती हैं, राजा महाराजा भी जिनके चरणों में अपना मस्तक झुकाते हैं, वे इतनी सहजता से कह देते हैं कि मुझे नहीं मालूम | वो ये नहीं सोचते कि यदि मैं कहूँगा कि मुझे नहीं मालूम तो ये क्या सोचेंगे कि इतने बड़े महाराज और नहीं मालूम? इस प्रकार की बात उनके मन में नहीं आती और बिलकुल शिशु के समान निर्विकार उनका जीवन होता है। उन्होंने बिलकुल स्पष्ट कह दिया कि इसका अर्थ मुझे नहीं मालूम | तब व विद्यानन्दि जी विद्वान् पुनः प्रार्थना करते हैं-महाराज जी! आप एक बार और पाठ कर लीजिये, मैं सुनकर उसके अर्थ को लगान का प्रयास करूँगा। तब महाराज पुनः पाठ करते हैं, जिसे सुनकर सुननेवाले का मिथ्यात्व रूपी अंधकार नष्ट हो गया। वे महाराज क चरणों में गिरकर बोलते हैं कि, महाराज जी! आप मुझ भी अपने-जैसा बना लीजिये, मैं भी मुनि अवस्था में रहना चाहता हूँ | आज तक मैं भ्रम में था, आज तक मैं अपने आप का विद्वान मानता था, अब मुझे सच्चे विद्वान् का परिचय प्राप्त हुआ है, आप मुझे दीक्षा द दीजिये | दीक्षा (148)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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