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________________ प्रबुद्ध अस्तेय पृथक गृद्धता लिप्सा गुरू आम्नाय = आभ्यांतर दिग्दर्शित स्पृष्ट ज्यामितीय बुद्धिमान चोरी का पाप नहीं करना गुरू या अमुक सम्प्रदाय के गुरू को अपना गुरू मानना आन्तरिक, आत्मा के गुण = बता देना पांच भावेन्द्रियां जो जड़ कर्म से प्रभावित होते हैं, (सांख्यमत) = जड़ मूल से नष्ट हो जाना, देह की मृत्यु से देही (आत्मा) की मृत्यु मानना क्षब्ध नैसर्गिक निस्पृह अप्रमत्त प्रशस्ततम = पाँच तन्मात्रा = उच्छेदवाद = वैय्यावृत्य = = अलग उसी में अत्यन्त रस लेना, सुख मानना किसी भी इन्द्रिय के सुख को = = = = = = = = = = = 'खूब भोगने का भाव स्पर्शित, छूकर रहना गणित, दोगुना, चार गुना, सोलह गुना बढ़ना (ज्योमेट्री) अत्यधिक दुखी होकर अन्य पर क्रोध करना संवृत प्रतिसंलीनता = एक बाह्य तप जिसमें साधक विपरीत स्थान- व्यक्तियों के बीच जाता है और कष्ट उपसर्ग आने पर भी विचलित नहीं होता । संयमी साध्वी की सेवा, सुश्रुषा करना 'साधु, प्राकृतिक, स्वयं का गुण, प्रकृति से प्राप्त भोग में रस नहीं लेना, वांछा इच्छा नहीं रहना निरन्तर आत्मा में जागृत रहना शुभ भाव में, वे शुभभाव तो देव, गुरू, धर्मसंबंधी हो, अनुराग हो जो साधककर्मों के आने के मार्गों को रोक देता है 81
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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