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हीन-तुच्छ-चांडाल कुल में हुआ हो। महावीर के तीर्थ में चारों प्रकार की जातियों-कुलों में जन्मे श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी थे और कई मोक्षगामी हुए हैं। अतः महावीर जातिवादी व्यवस्था नहीं मानते, मोक्ष की, आत्मा की साधना में जाति, वेश, लिंग, बाधक-साधक नहीं हैं। आत्मा की साधना आत्मा द्वारा, आत्मा के ही गुण प्रकट करने से होती है। इस अपेक्षा से कहा कि मनुष्य जन्म से महान् नहीं कर्म से महान् बनता है।
कौन से कर्म से मनुष्य महान् बनता है? कर्म से अकर्म में जाने से। शुभ भाव से पुण्य कर्म और अशुभ भाव से अशुभ-से-अशुभतम फल देने वाला। पापकर्म। ऐसे कर्म, शुभ या अशुभ भावों को क्रियान्वित करने की क्रिया, प्रवृत्ति, कार्य (कृत्य), कर्म सब पर्यायवाची मानें। क्रिया है तो कर्म है। शुभ क्रिया का फल सुगति, मनुष्य गति और देव गति। अशुभ क्रिया का फल, तिर्यंच गति और नरक गति। इन दोनों से रहित हो जाय तो गति-मुक्ति, मोक्ष। प्रवृत्ति से निवृत्ति, कर्म से अकर्म, क्रिया से अक्रिया में ले जाते हैं-महावीर। 'कर्म किए जा, फल की चिन्ता मत कर वह तो मैं दे दूंगा' यह महावीर का सिद्धान्त नहीं है। 'कर्म ही पूजा है' यह सूत्र व्यावहारिक जीवन को मात्र क्रियाकांडी बन पूजा-प्रार्थना के स्थान पर कार्य करने पर जोर देता है।
क्रिया है तो कर्म, अक्रिया से मुक्ति-ये कार्य, कर्म, प्रवृत्ति, क्रियाएं करते हुए जीव के अनन्त जीवन (भव) व्यतीत हो गए। अनादि से मानव भी यही करता आया है। आज भी विश्व के सभी 8-10 (करीब) अरब व्यक्ति इसी में लगे हैं पर आकुलता-व्याकुलता के स्थान पर निराकुल स्वभाव प्रकट नहीं होता। अशान्ति के स्थान पर शान्ति, परम शान्ति प्रकट नहीं होती। इसलिए महावीर ने प्रवृत्ति से हटकर निवृत्ति मार्ग अपनाया। यह पंचमहाव्रत रूप निवृत्ति भी उनके पालनरूप प्रवृत्ति बन गई, उसे बड़ी कड़ाई से पाला जाना, उस हेतु पांच समितियों का पूर्ण सावधानी से पाला जाना, फिर पालने-रूप क्रिया में अटक गए। अप्रशस्त भावों में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति न कर, प्रशस्त भावों में, मन-वचन-काया प्रवृत्त हुए। माला फेरो, जप-तप करो, सामायिक करो, स्वाध्याय करो, ध्यान करो, त्याग प्रत्याख्यान करो, प्रतिक्रमण करो। ज्ञानी की, गुरु की विनय-भक्ति करो, सेवा-वैयावृत्य करो आदि 'करो, करो' फिर भी रह गए। ध्यान करो। इसमें करो' आ गया।
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