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________________ राग कराना चाहता है, तत्पर खड़ा है, मैं करना चाहूं तो करूं, न करना चाहूं तो न करूं, करूं तो मरूं, चर्तुगति में अनन्त बार, न करूं तो चर्तुगति से मुक्त होऊं। वह निमित्त-रागी विकार में ले जाकर, आश्रव कराएगा, विकार न करूं तो संवर हो गया। मंद करूं तो मंद आश्रव, तीव्र करूं तीव्र आश्रव-बंध, न करूं तो संवर। दोनों विकल्प मेरे हाथ में हैं। चुन लो। ज्ञानी वही, सम्यक्त्वी वही जो राग से वीतरागता की ओर बढ़ता जाए, अन्ततः पूर्ण वीतरागी हो जाएगा। द्वेष का निमित्त-द्वेष मत करो-दूसरा रूप-अघाती में से, असाता वेदनीय कर्म के उदय में एक व्यक्ति दुख देने आया, गाली दे रहा है, शरीर को हानि, परिजन-प्रिय जन को हानि, धन, सम्पत्ति, पद, प्रतिष्ठा को हानि, इन्द्रिय सुख में बाधा या इन्द्रिय सुख-साधन-पूर्ति में बाधा दे रहा है, आदि। घाती कर्म में से मोहनीय कर्म के एक भेद, द्वेष (क्रोध) मोहनीय वेदनीय कषाय कर्म का उदय आया। उस प्रतिकूल निमित्त के आते ही, उससे प्रेरित, भ्रमित, प्रभावित हो, मानो, मैं क्रोधावेग में, आगबबूला हो, प्रतिक्रिया में-एक की जगह दो गाली, मार-पीट आदि करता हूं तो पुनः नए कर्मों का आश्रव-बंध। ध्यान रखें-आश्रव द्वार को, कारण, निमित्त कारण को बंद करना, हटाना ही संवर है। असातावेदनीय कर्म तो जिस गाढ़ मंदता का बांधा था, वैसा ही उदय में आना ही था, अटालनीय है, वह तो आएगा ही, आ गया, खड़ा है, सामने, मानो अपना कार्य कर रहा है। मैं उसके अनुसार, पूर्व की भूल, ज्ञानी के वचन-बल से सुधार लूं और प्रतिक्रिया में, प्रतिक्रोध, प्रतिहिंसा, प्रतिकार, प्रतिरोध, प्रतिवार, प्रत्याक्रमण, प्रतिवाद, प्रति उत्तर ही न दूं, अपने में चला जाऊं, तो नए कर्म आने का द्वार बंद कर दिया, संवर हो गया। सम्यक्त्वी, ज्ञानी ऐसा ही करते हैं। ज्ञानी, चौथे गुण स्थान से आगे सभी गिने गए हैं। पूर्व में अज्ञान, मिथ्यात्व में मैं भूल करता रहा, आश्रव-बंध कर रहा था, अब ज्ञानी, परम ज्ञानी के वचन सुन-पक्के कर लिए, अब भूल क्यों? अनादि की, पूर्व की भूल सुधरी कि संवर। इसे अन्य दृष्टांत से समझें-एक सबल बच्चे ने निर्बल बच्चे को खेलते हुए किसी कारण से जोरदार चांटा मार दिया। वह बिसूरता हुआ गया। 5-7 तगड़े मित्रों को बदला लेने हेतु बुला लाया। सबल बच्चा घर में जा मां की गोद में बैठ गया। वे बच्चे बाहर ताल ठोंक रहे हैं, निकल बाहर, अभी अकल ठिकाने लगाते हैं तेरी। मां की गोद में से निकाल कर तो मार नहीं सकते थे, थोड़ी देर तक ताल ठोंकते रहे, फिर बिखर गए। 1644
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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