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द्रव्य, गुण, पर्याय से आत्मा-शरीर की भिन्नता द्रव्य से मैं आत्मा। द्रव्य से यह शरीर पुद्गल। गुण से मैं ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुणों का पूंजीभूत, समूह। गुण से, यह शरीर वर्ण, गंध, रस स्पर्श आदि गुणों वाला। स्वभाव से मैं मात्र अपने आपको जानने-देखने वाला उपयोग गुण या लक्षण वाला अजन्मा, अजर, अमर ऐसा मेरा स्वरूप है। स्वभाव से यह शरीर निरन्तर सड़ने-गलने वाला। चमड़ी, हड्डी, मांस, मज्जा, रक्त, पीप, बलगम, मल, मूत्र आदि दुर्गंधों का भंडार। ऐसी अशुचि से ही उत्पन्न और अशुचियों का पुंज अनित्य, क्षणभंगुर, मात्र मिट्टी। मिट्टी का बना हुआ, मिट्टी ही खाने वाला, मिट्टी बनाने वाला और अन्ततः मिट्टी में ही मिलने वाला। भोजन का हर पदार्थ मिट्टी का ही रूपान्तर है। गेहूँ का एक दाना बोया, पचास दाने मिट्टी से ही बने। बढ़िया सुगंध वाला देशी घी का, बादाम का हलुआ खाया, 24 घंटे बाद मलवा। न जाने किस क्षण आयुष्य पूरी हो जाए, मृत्यु, कुछ समय में चिता में झौंका, कि राख की ढेरी। ऐसा यह शरीर। एक क्षण का भी भरोसा नहीं। इतना क्षणभंगुर, विनाशीक, अनित्य, उसी अपेक्षा मात्र संयोगी। इसकी तुलना में मैं नित्य, शाश्वत, ध्रुव, त्रैकालिक आत्मा। सदा काल रहने वाला। इतनी दोनों की भिन्नता है।
मेरे निज-गुण जानना, देखना, अनुभव करना, निरन्तर अपने सुख में तत्लीन लवलीन, मगन रहना इन गुणों का, एक भी गुण का एक अंश भी इस शरीर में नहीं है। इसमें जो वर्ण, गंध, रस, स्पर्श गुण हैं, उनमें से एक भी गुण मुझमें (आत्मा में) नहीं है। जीव या आत्मा को अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श वाला भी कहा है। मुझे कभी भ्रांति न हो जाए, कि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श युक्त शरीर मैं हूं। इसलिए महावीर ने जीव की एक नकारात्मक परिभाषा दी। जिसमें वर्ण नहीं, गंध नहीं, रस नहीं, स्पर्श नहीं, वह जीव मैं हूं। गुण अपेक्षा दोनों में पूर्णतः प्रकटतः स्पष्ट भिन्नता है।
पर्याय से भिन्नता-जैसा द्रव्य वैसी ही उसकी पर्याय होती है। द्रव्य अपने-अपने गुण के अनुसार, अपने गुण में ही परिणमन करता है, पर्यायान्तर करता है। पर्याय या रूप बदलता है। अवस्थाएं बदलती हैं। जैसे पुद्गल का एक गुण वर्ण है, वह वर्ण गुण कभी सफेद, कभी पीला, कभी हरा, कभी काला ऐसे अनन्त रूप निरन्तर बदलते ही जाते हैं। जन्म के समय गोरा-चिट्टा शरीर तथा पीला (पीलिया रोगग्रस्त) पड़ने लगे, सांवला पड़ने लगे, चमड़ी में झुर्रियां पड़ने लगे, काले बाल सफेद होने लगें तो मुझे (आत्मा) चिंता होने लगती है। क्यों भाई! क्यों
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