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________________ निश्चय से, सत्यतः, निश्चय नय से यह कथन सत्य है। यदि कहें कि यही सत्य है तो फिर वह विकारग्रस्त, कर्म से मैला क्यों है? क्यों हो रहा है? वह भी उसी आत्मा का है। तो मानो कि अभी, प्रत्यक्ष सिद्ध, दिख रहा है कि वह क्रोधी (रागी, मोही, द्वेषी) है, यह भी सत्य है। दो विपरीत बातें, एक ही द्रव्य में, सत्य कैसे? अनेकान्त में हल है-परमार्थतः निर्मल निर्विकारी है, पर व्यवहार में जैसा हो रहा है, व्यवहार नय से विकारी है। कोई मात्र निर्विकारी मान ले, कोई विकारी ही है-अब क्या विकार मिटें, अनन्त काल तो विकारग्रस्त रहते हो गया, दोनों भ्रम में हैं। महावीर के अनेकान्त दर्शन में यही विशेषता है चाहे अनन्त काल विकारग्रस्त होते बीता पर वह तुम्हारा स्वभाव नहीं, स्वभावतः, परमार्थतः तुम निर्विकारी हो, विकार से परे हो, निर्विकारी हो जाओ, मुक्त हो जाओ। महावीर प्रत्येक दार्शनिक को कहते हैं, इस अपेक्षा से, इय नय से, दृष्टि से तुम स्यात् सही हो पर अन्य नय से, अपेक्षा से, दृष्टि से वही सत्य नहीं है। अंश, अंश सत्य नहीं है। हाथी के एक अंग से पूर्ण हाथी, अंधा मानेगा, आंख वाला, ज्ञानचक्षु-महावीर सभी अंगों के समूह रूप, सभी गुणधर्मों के समूह रूप द्रव्य को सत्य कहते हैं। यह अनेकान्त दर्शन है, उसकी कथन शैली को स्याद्वाद कहते हैं। ___ छहों द्रव्य साथ रहते हैं पर एकमेक नहीं होते मैं जीव द्रव्य हूं-छहों द्रव्यों और छहों दर्शनों का स्वरूप समझने से यह पक्का हुआ कि महावीर का दर्शन सर्वांगीण है, अकाट्य, प्रामाणिक है, सम्यक् दृष्टि प्रदान करता है। इन छहों द्रव्यों के अपने-अपने विशिष्ट गुण हैं, उसी से उसकी पृथक पहचान, पृथक सत्ता, स्वतंत्र, अन्य सबसे भिन्न, स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध होता है। चाहे छहों द्रव्य साथ रहें, एकसाथ रहते हुए भी प्रत्येक की अपनी पृथक सत्ता, अस्तित्व बना रहता है, कोई किसी के अस्तित्व को मिटा नहीं देता। दो कटोरी दाल ली। कूकर में दो गिलास पानी डाला। उबाला। घी रखकर, हींग, जीरा, मिर्ची, नमक, हल्दी का छोंक लगाकर, एक कटोरी में दाल परोसी। क्या सभी मिलकर मात्र दाल हो गए? कहलाते हैं परन्तु गंध बताकर, हींग जरासी होते भी, अपना अस्तित्व बता रही है। मिर्ची की जलन से मिर्ची, हल्दी के रंग से, नमक अपना खारापन चखाकर अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व बता रहे हैं। दाल ने किसी का भी अस्तित्व निगल नहीं लिया, मिटा नहीं दिया, वैसे ही छहों द्रव्य एक साथ रहते हैं। हाथ ऊपर उठाया-धर्मास्तिकाय है, रोका, अधर्मास्तिकाय है, हाथ या पूरा शरीर 244
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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